क्या निराश हुआ जाए
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
प्रश्न
"क्या निराश हुआ जाए" निबंध के शीर्षक की सार्थकता स्पष्ट करते हुए यह बतलाइए कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने क्या संदेश दिया है ?
उत्तर
हजारी प्रसाद द्विवेदी हिन्दी के उच्च कोटि के निबंधकार और आलोचक हैं। वे हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत और बांग्ला भाषाओं के विद्वान थे ।भक्तिकालीन साहित्य का उन्हें अच्छा ज्ञान था।
द्विवेदी जी ने भारतीय संस्कृति, साहित्य और इतिहास पर गहन विवेचन किया है। उन्होंने सूर, कबीर, तुलसी आदि पर आलोचनाएँ लिखी हैं| हजारी प्रसाद द्विवेदी को सन १९५७ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। द्विवेदी जी की भाषा परिमार्जित खड़ी बोली है।
प्रमुख रचनाएँ -बाणभट्ट की आत्मकथा,
चारु चंद्रलेख. पुनर्नवा, अनामदास का पोथा आदि।
कवि पन्नालाल ने लिखा है – “रात के ख़त्म होने से सुबह नहीं होती, अँधेरे का गला घोंटना पड़ता है।“ मानव-जीवन में बहुत अँधेरा है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि इस काली रात की सुबह नहीं होगी, लेकिन रोशनी की बस एक किरण काली अँधेरी रात का सीना चीरकर उजाले की नई शुरुआत करती है।
लेखक ने इस लेख का शीर्षक 'क्या निराश हुआ जाए' उचित रखा है क्योंकि यह उस सत्य को उजागर करता है जो हम अपने आसपास घटते देखते रहते हैं,अगर हम एकदो बार धोखा खाने पर यही सोचते रहें कि इस संसार में ईमानदार लोगों की कमी हो गयी है तो यह सही नहीं होगा। आज भी ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने अपनी ईमानदारी को बरकरार रखा है। लेखक ने इसी आधार पर लेख का शीर्षक 'क्या निराश हुआ जाए' रखा है। यही कारण है कि लेखक कहते हैं - "ठगा भी गया हूँ, धोखा भी खाया है। परन्तु, बहुत कम स्थलों पर विश्वासघात नाम की चाज़ मिली है। केवल उन्हीं बातों का हिसाब रखूँ, जिनमें धोखा खाया है तो जीवन कषटकर हो जाएगा, परंतु ऐसी घटनाएँ बहुत कम नहीं हैं, जहाँ लोगों ने अकारण सहायता की है, निराश मन को ढाढ़स दिया है और हिम्मत बँधाई है।“
द्विवेदी जी ने प्रस्तुत निबंध के माध्यम से देश की वर्तमान परिस्थिति का चित्रण करते हुए यह स्पष्ट किया है तिलक, विवेकानन्द और गाँधी के सपनों का आध्यात्मिक मानवीय-मूल्यों वाला भारतवर्ष आज भ्रष्टाचार, बेईमानी, ठगी आदि में फँस गया है। जो जितने ऊँचे ओहदे पर बैठा है, उसमें उतने ही अधिक दोष दिख रहे हैं। देश में ऐसा माहौल बनता जा रहा है कि जो व्यक्ति कुछ नहीं करता है वह बहुत सुखी है क्योंकि यदि वह कुछ करेगा तो समाज के लोग उसमें दोष ढूँढ़ने लगेंगे। आज मेहनत और ईमानदारी से अपनी जीविका चलाने वाले मेहनतक़श लोग मुश्किलों का सामना कर रहे हैं और झूठ और फ़रेब का रोज़गार करने वाले फल-फूल रहे हैं। देश में गरीबों की दयनीय अवस्था को दूर करने के लिए अनेक नियम-क़ानून बनाए जा रहे हैं। कृषि, उद्योग, वाणिज्य, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति को उन्नत बनाने की कोशिशें की जा रही हैं, लेकिन ऊँचे पदों पर बैठे जिन लोगों को यह महान कार्य करना है, वे ही अपने उत्तरदायित्वों से विमुख होकर सुख-सुविधाओं की ओर ज़्यादा ध्यान दे रहे हैं।
द्विवेदी जी ने यह भी संदेश दिया है कि दोषों का पर्दाफ़ाश करना तब बुरा रूप ले सकता है जब हम किसी के आचरण के गलत पक्ष को उद्घाटित करके उसमें रस लेते है। हमारा दूसरों के दोषोद्घाटन को अपना कर्त्तव्य मान लेना सही नहीं है। हम यह नहीं समझते कि बुराई समान रूप से हम सबमें विद्यमान है। यह भूलकर हम किसी की बुराई में रस लेना आरम्भ कर देते हैं और अपना मनोरंजन करने लग जाते हैं। हमें उनकी अच्छाइयों को भी उजागर चाहिए।
लेखक कहते हैं कि भारत में धर्म को क़ानून से बड़ा माना गया है। आज भी देश के बड़े तबके में सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और आध्यात्मिक मूल्यों की जड़ें गहराई तक गई हुई हैं। मनुष्य आज भी मनुष्य से प्रेम करता है, स्त्रियों का सम्मान करता है, झूठ और चोरी को गलत समझता है, दूसरों को पीड़ा पहुँचाना गलत मानता है और मुसीबत में पड़े लोगों की सहायता करना अपना परम धर्म समझता है।
निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि यह सत्य है कि मनुष्य ने आदिम काल से लेकर आज-तक विकास का लम्बा सफर तय किया है। इस सफर में मनुष्य ने कई तरह के सामाजिक नियम-क़ानून बनाए जिनमें त्रुटियाँ भी आईं और जिन्हें बदला भी गया। लेकिन आशा की ज्योति बुझी नहीं है। नए भारतवर्ष को गढ़ने और पाने की संभावना बनी हुई है और अतत: बनी रहेगी। हमें निराश होने की कतई जरूरत नहीं है बल्कि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को आधार बनाकर सदैव आगे बढ़ते रहना है।
शरणागत
वृंदावनलाल वर्मा
वृंदावनलाल वर्मा द्वारा रचित कहानी “शरणागत” इनसानी
सिद्धांत के महत्त्व को प्रतिपादित करती है – समझाकर लिखिए।
हिन्दी कथा साहित्य में वृंदावनलाल वर्मा का
महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा मानवीय प्रेम और इतिहास को
पुर्नसृजित (Recreate) किया है। १९०९ में प्रकाशित इनकी रचना ‘सेनापति ऊदल’ को अंग्रेज सरकार ने जब्त
कर लिया था। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक,
लेख आदि रचनाएँ लिखी हैं। इन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित किया
गया है। इनकी भाषा अत्यंत सहज तथा पात्रानुकूल है।
प्रमुख
रचनाएँ – मृगनयनी, विराट की पद्मिनी, झाँसी की रानी, कढ़ कुन्द आदि।
‘शरणागत’ कहानी वृंदावनलाल वर्मा द्वारा रचित
कहानियों में से एक बहुचर्चित कहानी है। इस कहानी में मड़पुरा नामक गाँव के लोगों
की मानसिकता को उजागर किया गया है। मड़पुरा गाँव हिन्दू-बाहुल्य इलाका था। वहाँ के
लोग किसी मुसलमान को अपने घर में आश्रय देना अनुचित मानते थे। यह उनकी धार्मिक कट्टरता
का पर्याय था। यही कारण है कि रज्जब जब मड़पुरा गाँव में आता है तब उसे किसी ने भी
अपने यहाँ आश्रय नहीं दिया। दरअसल रज्जब ललितपुर का रहने वाला एक कसाई था और
व्यापार के सिलसिले में वह मड़पुरा गाँव आया था। उसके पास दो-तीन सौ रुपए की मोटी
रकम थी। उसकी पत्नी को ज्वर था। वह गाड़ी नहीं करना चाहता था क्योंकि उससे खर्च बढ़
जाता। रज्जब मड़पुरा गाँव में आश्रय लेना चाहता है लेकिन लोकमत के अनुसार गाँव में
उसे आश्रय नहीं मिलता है। यद्यपि गाँव के कई हिन्दुओं ने अपने मवेशी उसे बेचे थे।
अंत में रज्जब आश्रय के लिए गाँव के एक गरीब ठाकुर के पास पहुँचता है जिन्हें
गाँववाले डर के मारे राजा शब्द से संबोधित करते थे और उसके घर को गढ़ी। ठाकुर ने
कड़क आवाज़ में कहा कि क्या वह नहीं जानता कि यह किसका घर है?
रज्जब
ने कहा – “यह राजा का घर है। इसलिए शरण में आया हूँ।“
शरण
में आए व्यक्ति की रक्षा करना बुंदेला का धर्म होता है। अत: ठाकुर मुसलमान कसाई
रज्जब को अपने पौर ( आँगन) में रात व्यतीत करने की अनुमति दे देता है। लेकिन लोकमत
के दबाव के कारण उसे सुबह अँधेरे में ही चले जाने को कहता है। दूसरे दिन रज्जब की
पत्नी का बुखार तो कुछ कम हो जाता है लेकिन शरीर में दर्द होने के कारण वह चल नहीं
पाती है जिसके कारण रज्जब सुबह-सुबह नहीं जा पाता है। ठाकुर उसे अपने पौर में पड़ा
देखकर क्रोधित हो जाता है।
“मैंने
खूब मेहमान इकट्ठे किए हैं। गाँव भर थोड़ी देर में तुम लोगों को मेरी पौर में टिका
हुआ देखकर तरह-तरह की बकवास करेगा। तुम बाहर जाओ और इसी समय।“
रज्जब
को वहाँ से जाना पड़ा। उसे उम्मीद थी कि पहर-आध में पत्नी की तबीयत ठीक हो जाएगी।
पर कोई फर्क नहीं पड़ा तो उसे बड़ी कठिनाई से अधिक किराया देकर एक छोटी जाति के
गाड़ीवान की सवारी मिली। रज्जब की पत्नी की तबीयत दोबारा बिगड़ जाने के बाद यात्रा
स्थगित करनी पड़ी। गाड़ीवान भी अँधेरा होने के कारण आगे जाने को तैयार नहीं हुआ।
मज़बूरी में रज्जब ने गाड़ीवान को कुछ और पैसे देकर चलने के लिए मनाना पड़ा।
गाड़ी
जब घने जंगल से गुजरी तब अचानक कुछ लठैतों ने गाड़ी रोक दी और रज्जब को सब कुछ दे
देने की धमकी देने लगे। परंतु जैसे ही लठैत ने रज्जब को पहचाना, वह गाड़ी से नीचे उतर आया।
उसने अपने साथियों को उसे छोड़ देने को कहा क्योंकि उसकी कमाई अपवित्र थी। परण्तु
उसके साथियों ने उसकी बात को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने ठाकुर का विरोध किया।
चूँकि रज्जब ठाकुर का शरणागत था, ठाकुर ने अपने साथियों की परवाह न करते हुए कहा – “खबरदार, जो उसे छुआ। नीचे उतरो, नहीं तो तुम्हारा सिर चूर
किए देता हूँ। वह मेरी शरण में आया था।“ अंत में ठाकुर अपने साथियों से कहता है –
“न आना। मैं अकेले ही बहुत कर गुजरता हूँ। परंतु बुंदेला शरणागत के साथ घात नहीं
करता। इस बात को गाँठ बाँध लेना।“
इस
प्रकार यह स्पष्ट होता है कि अपने सिद्धांतों का पक्का व्यक्ति जाति-पाँति, धर्म या धन की चिंता नहीं
करता। ऐसे व्यक्ति अपने उसूलों से मानवता का कल्याण ही करते हैं।
पुत्र-प्रेम
प्रेमचंद
प्रश्न
"एक-एक शब्द उनके हृदय में शर के समान चुभता था। इस उदारता के प्रकाश में उन्हें अपनी हृदयहीनता, अपनी आत्मशून्यता, अपनी भौतिकता अत्यंत भयंकर दिखाई देती थी।" - बाबू चैतन्यदास की आत्मग्लानि का क्या कारण था ? अपने शोक संतप्त हृदय की शांति के लिए उन्होंने किस उपाय का सहारा लिया ?
उत्तर
पुत्र-प्रेम प्रेमचंद द्वारा लिखी गई हिन्दी की प्रमुख कहानियों में से एक है।
हिन्दी कथा साहित्य में प्रेमचंद का स्थान महत्त्वपूर्ण है। प्रेमचंद को हिन्दी कथा-सम्राट की संज्ञा भी दी गई है। प्रेमचंद के लेखन पर गाँधीवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।
प्रेमचंद की भाषा में हिन्दी-उर्दू के आसान शब्दों का प्रयोग मिलता है जिसे हिन्दुस्तानी भाषा भी कहा जा सकता है। प्रेमचंद का साहित्य आदर्श से यथार्थ की ओर अग्रसर होता है।
प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएँ हैं-पंच परमेश्वर, पूस की रात, दो बैलों की
कथा,नशा,परीक्षा आदि।
प्रेमचंद द्वारा रचित प्रसिद्ध कहानी पुत्र-प्रेम एक पिता की हृदयहीनता और संवेदनहीनता का अत्यंत मार्मिक चित्रांकन करता है। भारतीय समाज में परिवार का विशेष महत्त्व है। परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल रहते हैं और कठिन-से-कठिन परिस्थितियों में भी मज़बूती के साथ एक-दूसरे का साथ देते हैं लेकिन जिस परिवार में सदस्य एक-दूसरे से भावानात्मक रूप से नहीं जुड़े होते हैं उस परिवार का भविष्य सदैव अंधकारमय होता है।
बाबू चैतन्यदास शहर के जाने-माने वकील थे जिन्होंने अर्थशास्त्र खूब पढ़ा था । उनका स्पष्ट मानना था कि यदि खर्च करने के बाद स्वयं का या किसी दूसरे का उपकार नहीं होता है तो वह खर्च व्यर्थ है और उसे नहीं करना चाहिए। बाबू चैतन्यदास जी ने अर्थशास्त्र को अपने जीवन का आधार बना लिया था।
बाबू चैतन्यदास जी के दो पुत्र थे - बड़े का नाम प्रभुदास और छोटे का नाम शिवदास। दोनों कॉलेज में पढ़ते थे और पिता को दोनों से बड़ी आशाएँ थी और वे प्रभुदास को इंग्लैंड भेजकर बैरिस्टर बनाना चाहते थे। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। बी०ए० की परीक्षा के बाद प्रभुदास की तबीयत खराब होने लगी और उसे ज्वर आने लगा। एक महीने तक दवा करवाने के बावजूद भी प्रभुदास की अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया बल्कि वह बहुत ही कमज़ोर होता चला गया। डॉक्टर ने बताया कि उसे ट्युबरक्युलासिस (तपेदिक) है और वह आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख सकता है क्योंकि अब प्रभुदास में मानसिक परिश्रम करने की शक्ति नहीं रही। डॉक्टर ने बाबू चैतन्यदास को सलाह दी कि प्रभुदास को इटली के किसी सेनेटोरियम में भेज दिया जाए जिसके लिए लगभग तीन हजार का खर्च लगेगा लेकिन यह निश्चित नहीं है कि प्रभुदास पू री तरह से स्वस्थ हो जाएँगे। बाबू चैतन्यदास की पत्नी और प्रभुदास की माँ तपेश्वरी अपने बेटे को इटली भेजने का जिद करती है लेकिन चैतन्यदास को व्यर्थ खर्च का भय सताने लगता है। बाबू चैतन्यदास अपने पूर्वजों की संचित संपत्ति को अनिश्चित हित की आशा पर बलिदान नहीं करना चाहते थे।
छह महीने बीत जाते हैं और शिवदास बी०ए० की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है। चैतन्यदास उसे इंग्लैंड में कानून की पढ़ाई करने भेज देते हैं और इधर प्रभुदास की मृत्यु हो जाती है।
चैतन्यदास प्रभुदास का दाह-संस्कार करने के लिए मणिकर्णिका घाट पर जाते हैं। उन्हें अपने बेटे के इलाज के लिए तीन हजार रुपए खर्च न करने का दुख सताता है। तभी उन्हें मनुष्यों का एक समूह अरथी के साथ आता हुआ दिखाई दिया। वे सब ढोल बजाते, गाते, पुष्प-वर्षा करते चले आते थे। उनमें से एक युवक आकर चैतन्यदास के पास खड़ा हो गया और बातचीत के दौरान उस युवक ने बताया कि उसके पिता की मृत्यु हो गई है। पिता की अंतिम इच्छा थी कि हमें मणिकर्णिका घाट पर ही ले जाना। गाँव से आने के कारण सैकड़ों खर्च हो गए लेकिन बूढ़े पिता को मुक्ति तो मिल गई। युवक ने कहा - "रुपया-पैसा हाथ का मैल है। कहाँ आता है, कहाँ जाता है, मनुष्य नहीं मिलता। जिंदगानी है तो कमा खाऊँगा। पर मन में यह लालसा तो नहीं रह गई कि हाय! यह नहीं किया, उस वैद्य के पास नहीं गया, नहीं तो शायद बच जाते...।"
बाबू चैतन्यदास सिर झुकाए उस युवक की सारी बातें सुन रहे थे। बाबू चैतन्यदास का मन आत्मग्लानि से भर उठा। युवक का एक-एक शब्द उनके हृदय में तीर के समान चुभ रहा था। उन्हें अपनी हृदयहीनता, आत्मशून्यता और इस भौतिक दुनिया के धन-दौलत एवं ऐश्वर्य अत्यंत भयंकर जान पड़ रहे थे।
अपने शोक संतप्त हृदय की शांति के लिए उन्होंने प्रभुदास की अंत्येष्टि पर हजारों रुपए खर्च किए और यह उनका प्रायश्चित भी था और अपने दुखी मन को शांत करने का उपाय भी।
हम कह सकते हैं कि बाबू चैतन्यदास ने परिवार के भावनात्मक रिश्ते की तिलाजंलि देकर अपनी संपत्ति की रक्षा की और अंतत: अपने पुत्र को खोकर आत्म-पीड़ा में डूब गए।
बाबू चैतन्यदास सिर झुकाए उस युवक की सारी बातें सुन रहे थे। बाबू चैतन्यदास का मन आत्मग्लानि से भर उठा। युवक का एक-एक शब्द उनके हृदय में तीर के समान चुभ रहा था। उन्हें अपनी हृदयहीनता, आत्मशून्यता और इस भौतिक दुनिया के धन-दौलत एवं ऐश्वर्य अत्यंत भयंकर जान पड़ रहे थे।
अपने शोक संतप्त हृदय की शांति के लिए उन्होंने प्रभुदास की अंत्येष्टि पर हजारों रुपए खर्च किए और यह उनका प्रायश्चित भी था और अपने दुखी मन को शांत करने का उपाय भी।
हम कह सकते हैं कि बाबू चैतन्यदास ने परिवार के भावनात्मक रिश्ते की तिलाजंलि देकर अपनी संपत्ति की रक्षा की और अंतत: अपने पुत्र को खोकर आत्म-पीड़ा में डूब गए।
भक्तिन
महादेवी वर्मा
प्रश्न
भक्तिन का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर
"स्मृतियों की रेखाएँ" में संकलित "भक्तिन" महादेवी वर्मा का प्रसिद्ध संस्मरणात्मक रेखाचित्र है। इसमें महादेवी वर्मा ने अपनी सेविका भक्तिन के अतीत और वर्तमान का परिचय देते हुए उसके व्यक्तित्व का रोचक किन्तु मर्मस्पर्शी शब्द चित्रण किया है। महादेवी वर्मा हिन्दी साहित्य के छायावादी काल की प्रमुख कवयित्री है। उन्हें आधुनिक युग का मीरा भी कहा जाता है। महादेवी वर्मा ने संस्कृत से एम०ए० किया और तत्पश्चात प्रयाग-महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या नियुक्त की गईं। महादेवी वर्मा ने स्वतंत्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। उन्होंने न केवल साहित्य लिखा बल्कि पीड़ित बच्चों और महिलाओं की सेवा भी की।
महादेवी वर्मा की भाषा संस्कृतनिष्ठ सहज तथा चित्रात्मक है जिसमें हिन्दी के तद्भव व देशज शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। इनकी कुछ प्रसिद्ध रचनाओं के नाम हैं - गिल्लू, सोना, अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, हिमालय आदि।
आउट साइडर
मालती जोशी
प्रश्न
’आउट साइडर’ कहानी किस प्रकार की कहानी है ? कहानी में आए पात्रों का परिचय देते हुए बताइए कि, कहानी में लेखिका ने किस प्रकार की समस्या को उजागर किया है तथा इसके माध्यम से उन्होंने क्या संदेश दिया है ?
उत्तर
आउट साइडर ’ कहानी सामाजिक परिवेश पर आधारित है। इसकी लेखिका मालती जोशी जी हैं। इन्होंने अनगिनत कहानियाँ बाल कथाएँ तथा उपन्यास की रचना की है, जिनका अनुवाद भारतीय और विदेशी भाषाओं में किया गया है। इनकी रचनाओं का रंगमंचन, रेडियो तथा दूरदर्शन पर भी किया गया है। आम बोलचाल की भाषा को ही इन्होंने रचना में स्थान दिया। इनकी अन्य रचनाएँ हैं – परख, जीने की राह, दर्द का रिश्ता आदि हैं।
प्रस्तुत कहानी में परिवार की सबसे बड़ी लड़की नीलम अपने पिता की आकस्मिक निधन के बाद नौकरी करके तथा अविवाहित रहकर पूरे परिवार के भरण-पोषण का उत्तरदायित्तव निभाती है। नीलम एक कॉलेज में अध्यापन का कार्य करती है। उसके तीन भाई हैं – सबसे बड़ा सुजीत (जीत) मझला सुदीप ( दीपू ) और सबसे छोटा सुमित। पूनम उनकी छोटी बहन है, जिसके पति का नाम नरेश है। सुदीप कनाडा में काम करता है, सुजीत बैंक में काम करता है और सुमित मेडिकल कर रहा है।
परिवार में सबसे छोटे भाई की शादी के अवसर पर सभी एक-जुट होते हैं। शादी हो जाने के बाद सभी मिलकर नीलम को शादी करने के लिए मनाते हैं। पैंतालीस साल की उम्र में जब नीलम को लगता है कि उसने अपनी संपूर्ण जिम्मेदारियों को पूर्ण कर लिया, तब उसके दोनों भाई , उसकी बहुएँ , उसकी छोटी बहन और घर का दामाद भी उन्हें शादी करने के लिए मजबूर करते हैं। नीलम जब शादी के प्रस्ताव को ठुकरा देती है, तो उसे पता लगता है कि सुदीप की पत्नी सुषमा से सुजीत की पत्नी अलका अफ़सोस प्रकट करते हुए बड़े दुख के साथ कह रही थी कि, “ उसे मालूम था कि दीदी शादी करने से मना कर देंगी, क्योंकि इतने दिनों तक वह घर में बॉसिंग करती रही हैं, अब ससुराल की धौंस-डपट सहना उनके बस की बात नहीं है।“ पूनम ने भी अपनी नीलम दीदी को जीवन की सच्चाई बताते हुए कहा कि – “ दीदी तुमने इस घर को लाख इस ख़ून से सींचा हो, पर यह घर कभी भी तुम्हारा नहीं हो सकता है। तुम हमेशा इस घर के लिए आउट साइडर ही रहोगी। अभी तुम्हारे पास नौकरी है, पर जब तुम रिटायर हो जाओगी तो तुम्हारी हैसियत इस घर में एक फ़ालतु सामान की तरह रह जाएगी, तब तुम्हें मेरी बात याद आएगी।“
नीलम ने अपनी छोटी बहन पूनम की बात को गंभीरता से नहीं लिया। सुमित की शादी के लिए ली गई पंद्रह दिनों की छुट्टियाँ जब समाप्त हो गई तो नीलम अपनी छुट्टियों को कुछ और दिनों के लिए बढ़ाने के उद्देश्य से अपने कॉलेज गई तो उन्हें प्रमोशन के साथ उनके ट्रांस्फर की खबर उनके प्रिंसिपल ने दी। परंतु, नीलम को अपने भाइयों के प्रेम पर पूरा भरोसा था इसीलिए उसने इस प्रमोशन और ट्रांस्फर दोनों को ठुकरा दिया। उनकी यह गलतफ़हमी थी कि उनके भाई उन्हें कभी भी अपने से दूर नहीं जाने देंगे। परंतु घर जाकर जब उसने स्वयं अलका के मुख से सुना कि, उनका उस घर में रहना अलका को नहीं भाता है। उसका मानना था कि दीदी के रहते , वह घर कभी भी पूरी तरह से उसका नहीं हो सकता है तथा दीदी के कारण ही उसे अपनी बहुत सी इच्छाओं का गला घोटना पड़ता है। नीलम को जब घर में अपनी स्थिति की सही जानकारी होती है और उसे अपनी छोटी बहन पूनम की कही बात आज समझ में आती है। नीलम एक संवेदनशील महिला थी परंतु वह एक जुझारू स्त्री भी थी। वास्तविकता का बोध होते ही उसने परिवार से अलग होने का निश्चय किया। नीलम ने अपना प्रमोशन और ट्रांस्फर दोनों स्वीकर कर लिया।
अतः हम देखते हैं कि जिस घर के लिए नीलम ने अपने सपने, अपनी खुशियाँ और अपनी ज़िंदगी लगा दी थी, उसी घर के लोगों ने उन्हें आउट साइडर बना दिया था। नीलम एक स्वाभिमानी स्त्री थी, उसने उनसे पहले ही स्वयं को आउट साइडर बना लिया।
इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने समाज में अविवाहित स्त्रियों की त्रासदी को दिखाने का प्रयास किया है। लेखिका के अनुसार समाज में जब कोई स्त्री पुरुषों की तरह अपने कंधों पर अपने परिवार की ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाती है और निष्ठापूर्वक उसे निभाती है तो उसे घर का अधिपति नहीं वरन् आउट साइडर ही माना जाता है। यह हमारे समाज की एक विकट समस्या है कि लड़की का घर, जहाँ उसका जन्म हुआ है, वह कभी अपना नहीं होता। उसका ससुराल ही उसका घर होता है। अर्थात् जिस लड़की की शादी न हो उसका कभी अपना घर ही नहीं होगा । वह हमेशा हर किसी के लिए आउट साइडर ही होगी।
इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने यह संदेश दिया है कि इस पुरुष-प्रधान समाज में यदि एक स्वाभिमानी स्त्री चाहे तो अपने आत्म-सम्मान को सदैव सुरक्षित रख सकती है।
(हिन्दी दर्पण ब्लॉग के सौजन्य से)
संस्कृति क्या है ?
रामधारी सिंह "दिनकर"
प्रश्न
रामधारी सिंह "दिनकर"
प्रश्न
लेखक ने किन लक्षणों का उल्लेख कर संस्कृति को समझाने का प्रयत्न किया है? समझाकर लिखिए तथा यह बताइए कि किस दृष्टिकोण से भारत और भारतीय संस्कृति महान है?
उत्तर
रामधारी सिंह 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गए। एक ओर उनकी रचनाओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर मानव सभ्यता और संस्कृति की अभिव्यक्ति है। उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता की वकालत की और शोषण के खिलाफ रचनाएँ लिखीं।
उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। भारत सरकार ने इन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया।
प्रमुख रचनाएँ - मिट्टी की ओर, रेती के फूल, कुरुक्षेत्र, रेणुका, हुंकार, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा आदि।
रामधारी सिंह ’दिनकर’ ने अपनी प्रसिद्ध रचना ’संस्कृति के चार अध्याय’ में संस्कृति के विषय में व्यापक चर्चा की है। संस्कृति एक ऐसा शब्द है जिसका उपयोग अधिकतर किया जाता है पर उसको समझना कठिन है। लेखक ने अपने निबंध ’संस्कृति क्या है’ में संस्कृति के लक्षणों की सहायता से उसे समझने और समझाने की प्रभावशाली कोशिश है।
लेखक ने एक वाक्य के द्वारा संस्कृति के एक लक्षण को अभिव्यक्त किया है -
"अंग्रेज़ी में कहावत है कि सभ्यता वह चीज़ है जो हमारे पास है, संस्कृति वह गुण है जो हममें व्याप्त है।"
"अंग्रेज़ी में कहावत है कि सभ्यता वह चीज़ है जो हमारे पास है, संस्कृति वह गुण है जो हममें व्याप्त है।"
सभ्यता और संस्कृति में
मौलिक अन्तर यह है कि, सभ्यता का सम्बन्ध जीवन यापन या सुख-सुविधा की बाहरी
वस्तुओं से है, जबकि संस्कृति का सम्बन्ध आन्तरिक गुणों से। सभ्यता स्थूल भौतिक पदार्थ है और संस्कृति वह कला है जो उन वस्तुओं का निर्माण करती है। प्रत्येक सुसभ्य व्यक्ति सुसंस्कृत नहीं हो सकता। वह अच्छे कपड़े पहन सकता है, अच्छे घर में रह सकता है, अच्छा खा-पी सकता है पर जरूरी नहीं कि उसमें अच्छे संस्कार भी हों। ठीक इसके विपरीत अति सामान्य जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति भले ही सुसभ्य न हो परन्तु अपने अच्छे गुणों के कारण सुसंस्कृत समझा जाएगा। लेखक ने अपनी बात को समझाने के लिए छोटा नागपुर की पिछड़ी आदिवासी जनता तथा भारतवर्ष के ऋषि-मुनियों का उदाहरण दिया है।
सभ्यता और संस्कृति एक-दूसरे के पूरक हैं। साधारण नियम के अनुसार सभ्यता और संस्कृति का विकास, उनकी प्रगति अधिकतर एक साथ होती है। लेखक ने घर बनाने के उदाहरण से अपनी बात स्पष्ट करनी चाही है। जब हम घर बनाते हैं तब यह स्थूल रूप से सभ्यता का कार्य होता है पर घर कैसा बनेगा, उसका नक्शा क्या होगा, उसकी सजावट कैसी होगी आदि-आदि इसका निर्णय हमारी सांस्कृतिक रुचि पर निर्भर करती है। संस्कृति की प्रेरणा से बनाया गया घर सभ्यता का अंग बन जाता है।
लेखक ने संस्कृति और प्रकृति के अंतर को भी स्पष्ट किया है। गुस्सा करना, लोभ में पड़ना मनुष्य का स्वभाव। ईर्ष्या, द्वेष, मोह, राग, कामवासना प्रकृति के गुण हैं। यदि मनुष्य ने इन्हें अपने वश में नहीं किया तो ये ही गुण दुर्गुण बनकर मानव को पशु की श्रेणी में ला देंगे। इन दुर्गुणों पर विजय प्राप्त करने वाला मनुष्य ही उच्च कोटि का संस्कारी माना जाता है।
सभ्यता की उन्नति अल्पकाल में होती है, जबकि संस्कृति विस्तृतकालीन सभ्यता की परिणति है। सभ्यता के साधन जल्दी इकट्ठे किए जा सकते हैं, किन्तु उसके उपयोग के लिए जो उपयुक्त संस्कृति चाहिए वह तुरन्त नहीं आ सकती। लेखक के शब्दों में - "अनेक शताब्दियों तक एक समाज के लोग जिस तरह खाते-पीते, रहते-सहते, पढ़ते-लिखते, सोचने-समझने और राज-काज चलाते अथवा धर्म-कर्म करते हैं, उन सभी कार्यों से उसकी संस्कृति उत्पन्न होती है।" संस्कृति ज़िन्दगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी संतानों के लिए छोड़ जाते हैं। यह सिलसिला सैकड़ो वर्षों से चला आ रहा है। लेखक के शब्दों में - "संस्कार या संस्कृति, असल में, शरीर का नहीं आत्मा का गुण है और जबकि सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है।"
प्राचीन काल से ही पनपने वाली कला हमारी संस्कृति की धरोहर है। पुस्तकालयों और संग्रहालयों. नाट्यशालाओं और सिनेमा-घर के साथ-साथ राजनीतिक और धार्मिक संगठन भी महारी संस्कृति की पहचान हैं।
संस्कृति का स्वभाव आदान-प्रदान होता है जब दो देशों के बीच संबंध स्थापित होते हैं तब उनकी संस्कृतियाँ भी एक-दूसरे से प्रभावित होती हैं ठीक उसी प्रकार जब दो भिन्न संस्कृति वाले व्यक्ति आपस में मिलते हैं तब एक-दूसरे पर अपना प्रभाव डालते हैं। अक्सर जब दो संस्कृतियाँ आपस में मिलती हैं तब सबसे पहले संघर्ष होता है फिर संप्रेषण और अंतत: समिश्रण।
लेखक के अनुसार जो जाति सिर्फ़ देना जानती है, लेना नहीं अर्थात जिस जाति में दूसरी संस्कृति की अच्छी बात ग्रहण करने की उदारता नहीं होती उसकी संस्कृति का एक दिन दिवाला निकल जाता है। जिस जलाशय में पानी आने का स्रोत खुला होता है, उसकी संस्कृति कभी नहीं सूखती। "जब भी दो जातियाँ मिलती हैं, उनके संपर्क या संघर्ष से जिन्दगी की नई धारा फूट निकलती है जिसका प्रभाव दोनों पर पड़ता है। आदान-प्रदान की प्रक्रिया संस्कृति की जान है और इसी के सहारे वह अपने को जिन्दा रखती है।"
रामधारी सिंह ’दिनकर’ जी का यह मानना है कि जिस देश और जाति ने अधिक से अधिक संस्कृतियों को आत्मसात करके समन्वय को महत्त्व दिया है वह देश और जाति महान मानी गई है। भारत देश और भारतीय जाति इस दृष्टि से दुनिया में सबसे महान और अग्रणीय है, क्योंकि यहाँ की सामाजिक संस्कृति में कई जातियों की संस्कृतियाँ समाहित है।
सभ्यता और संस्कृति एक-दूसरे के पूरक हैं। साधारण नियम के अनुसार सभ्यता और संस्कृति का विकास, उनकी प्रगति अधिकतर एक साथ होती है। लेखक ने घर बनाने के उदाहरण से अपनी बात स्पष्ट करनी चाही है। जब हम घर बनाते हैं तब यह स्थूल रूप से सभ्यता का कार्य होता है पर घर कैसा बनेगा, उसका नक्शा क्या होगा, उसकी सजावट कैसी होगी आदि-आदि इसका निर्णय हमारी सांस्कृतिक रुचि पर निर्भर करती है। संस्कृति की प्रेरणा से बनाया गया घर सभ्यता का अंग बन जाता है।
लेखक ने संस्कृति और प्रकृति के अंतर को भी स्पष्ट किया है। गुस्सा करना, लोभ में पड़ना मनुष्य का स्वभाव। ईर्ष्या, द्वेष, मोह, राग, कामवासना प्रकृति के गुण हैं। यदि मनुष्य ने इन्हें अपने वश में नहीं किया तो ये ही गुण दुर्गुण बनकर मानव को पशु की श्रेणी में ला देंगे। इन दुर्गुणों पर विजय प्राप्त करने वाला मनुष्य ही उच्च कोटि का संस्कारी माना जाता है।
सभ्यता की उन्नति अल्पकाल में होती है, जबकि संस्कृति विस्तृतकालीन सभ्यता की परिणति है। सभ्यता के साधन जल्दी इकट्ठे किए जा सकते हैं, किन्तु उसके उपयोग के लिए जो उपयुक्त संस्कृति चाहिए वह तुरन्त नहीं आ सकती। लेखक के शब्दों में - "अनेक शताब्दियों तक एक समाज के लोग जिस तरह खाते-पीते, रहते-सहते, पढ़ते-लिखते, सोचने-समझने और राज-काज चलाते अथवा धर्म-कर्म करते हैं, उन सभी कार्यों से उसकी संस्कृति उत्पन्न होती है।" संस्कृति ज़िन्दगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी संतानों के लिए छोड़ जाते हैं। यह सिलसिला सैकड़ो वर्षों से चला आ रहा है। लेखक के शब्दों में - "संस्कार या संस्कृति, असल में, शरीर का नहीं आत्मा का गुण है और जबकि सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है।"
प्राचीन काल से ही पनपने वाली कला हमारी संस्कृति की धरोहर है। पुस्तकालयों और संग्रहालयों. नाट्यशालाओं और सिनेमा-घर के साथ-साथ राजनीतिक और धार्मिक संगठन भी महारी संस्कृति की पहचान हैं।
संस्कृति का स्वभाव आदान-प्रदान होता है जब दो देशों के बीच संबंध स्थापित होते हैं तब उनकी संस्कृतियाँ भी एक-दूसरे से प्रभावित होती हैं ठीक उसी प्रकार जब दो भिन्न संस्कृति वाले व्यक्ति आपस में मिलते हैं तब एक-दूसरे पर अपना प्रभाव डालते हैं। अक्सर जब दो संस्कृतियाँ आपस में मिलती हैं तब सबसे पहले संघर्ष होता है फिर संप्रेषण और अंतत: समिश्रण।
लेखक के अनुसार जो जाति सिर्फ़ देना जानती है, लेना नहीं अर्थात जिस जाति में दूसरी संस्कृति की अच्छी बात ग्रहण करने की उदारता नहीं होती उसकी संस्कृति का एक दिन दिवाला निकल जाता है। जिस जलाशय में पानी आने का स्रोत खुला होता है, उसकी संस्कृति कभी नहीं सूखती। "जब भी दो जातियाँ मिलती हैं, उनके संपर्क या संघर्ष से जिन्दगी की नई धारा फूट निकलती है जिसका प्रभाव दोनों पर पड़ता है। आदान-प्रदान की प्रक्रिया संस्कृति की जान है और इसी के सहारे वह अपने को जिन्दा रखती है।"
रामधारी सिंह ’दिनकर’ जी का यह मानना है कि जिस देश और जाति ने अधिक से अधिक संस्कृतियों को आत्मसात करके समन्वय को महत्त्व दिया है वह देश और जाति महान मानी गई है। भारत देश और भारतीय जाति इस दृष्टि से दुनिया में सबसे महान और अग्रणीय है, क्योंकि यहाँ की सामाजिक संस्कृति में कई जातियों की संस्कृतियाँ समाहित है।
शरणागत
वृंदावनलाल वर्मा
प्रश्न
"बुंदेला शरणागत के साथ घात नहीं करता" - पंक्ति के आधार पर कहानी की समीक्षा कीजिए।
उत्तर
वृंदावनलाल वर्मा हिन्दी के नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। वे प्रेमचंद-परम्परा के लेखक हैं। इतिहास, कला, पुरातत्व, मनोविज्ञान, मूर्तिकला और चित्रकला में भी इनकी विशेष रुचि रही। उन्होंने अधिकांश रचनाएँ ऐतिहासिक और सामाजिक पृष्ठभूमि पर लिखी हैं। 'अपनी कहानी' में आपने अपने संघर्षमय जीवन की गाथा कही है। बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इन्होंने कानून की पढ़ाई की और झाँसी में वकालत करने लगे। 1909 ई० में 'सेनापति ऊदल' नामक नाटक छपा जिसे तत्कालीन सरकार ने जब्त कर लिया।
भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया गया। इनकी भाषा अत्यंत सहज तथा पात्रानुकूल है जिसमें आंचलिक शब्दों का प्रयोग किया गया है।
प्रमुख रचनाएँ - लगन, संगम, प्रत्यागत, मृगनयनी, दबे पाँव, मेढ़क का
ब्याह, अम्बपुर के अमर वीर, अँगूठी का दान, शरणागत
आदि।
बुंदेलखंड के रहने वाले राजपूत बुंदेला कहलाते हैं। बुंदेला वीर जाति है। उसके अपने जीवन मूल्य हैं जिन्हें प्राण रहते वे पूरी ईमानदारी से निभाते हैं। उनमें से एक है - शरणागत की रक्षा। ठाकुर बुंदेला था। वह मड़पुरा का एक ठाकुर था जिसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उनके पास थोड़ी-सी जमीन थी जिसको किसान जोतते थे। उसका अपना हल-बैल कुछ नहीं था। वह अपने किसानों से दो-तीन साल का पेशगी लगान सरलता से वसुल कर लेता था। उसके छोटे से मकान को भी गाँववाले आदरपूर्वक गढ़ी कहकर पुकारते थे। ठाकुर को डर के मारे राजा शब्द से संबोधित करते थे।
रज्जब एक कसाई था जो अपना व्यापार करके ललितपुर लौट रहा था। उसकी पत्नी को ज्वर आ गया था और साथ में दो-तीन सौ की बड़ी रकम थी। उसने मड़पुरा में ठहर जाने का निश्चय किया। मड़पुरा हिन्दुओं का गढ़ था। किसी ने उस मुसलमान को रात भर का आश्रय नहीं दिया। तब वह ठाकुर के द्वार पर पहुँचा। जब उसने अपना वास्तविक परिचय ठाकुर साहब को बताया तब ठाकुर की आँखों में खून उतर आया। उसने कड़ककर कह - "जानता है, यह किसका घर है? यहाँ तक आने की हिम्मत कैसे की तूने?"
रज्जब ने आशा भरे स्वर में कहा - "यह राजा का घर है। इसलिए शरण में आया हूँ।" ठाकुर समझ गया कि कसाई होने के कारण किसी ने उसे शरण नहीं दी है। ठाकुर ने उसे अपने यहाँ ड्योढ़ी पर एक रात व्यतीत करने की आज्ञा दे दी किन्तु इस हिदायत के साथ कि वह सवेरे जल्दी चला जाएगा। दोनों पति-पत्नी सो गए। काफ़ी रात बीत जाने पर कुछ लोगों ने इशारे से ठाकुर को बुलाया। आगन्तुकों में से एक ने कहा - "दाऊजू! आज तो खाली हाथ लौटे हैं। कल संध्या का सगुन बैठा है।" आगन्तुक ने ठाकुर को बताया कि एक कसाई रुपए की मोट बाँधे उसी ओर आया है। किन्तु वे ज़रा देर से पहुँचे और वह खिसक गया।
दरअसल ठाकुर साहब लुटेरों के एक समूह के सरदार थे जो रात के समय मालदार राहगीरों को लूटा करते थे।
ठाकुर जानता था कि वह कसाई और कोई नहीं बल्कि रज्जब ही है। रज्जब उसकी शरण में आया हुआ है। शरण में आए व्यक्ति की रक्षा करना बुंदेला का कर्त्तव्य है। वह अपने साथियों को रज्जब की सूचना नहीं देता है। वह अपने साथियों का मन बदलने के लिए उनसे कहता है कि वह कसाई का पैसा न छुएगा क्योंकि वह बुरी कमाई है। परन्तु उसके साथी उसकी बातों से सहमत नहीं होते हैं। ठाकुर ने अपने साथियों को वापस भेज दिया। सवेरे ठाकुर ने देखा कि रज्जब नहीं गया। पत्नी की तबीयत ठीक नहीं थी। ठाकुर ने रज्जब को तुरन्त वहाँ से चले जाने का हुक्म दिया। रज्जब गाँव के बाहर एक पेड़ के नीचे अपनी पत्नी के पास बैठा हिन्दुओं को मन ही मन में कोस रहा था।
रज्जब ने एक गाड़ी किराए पर ली। रज्जब की पत्नी की तबीयत ज़्यादा बिगड़ गई। गाड़ीवान ने रज्जब से अधिक पैसों की माँग की जिसे रज्जब को मानना पड़ा। यात्रा करते हुए साँझ हो गई। गाँव दूर था। कुछ दूर जाने पर तीन चार लोगों ने बैलों का रास्ता रो लिया। उन लोगों ने लट्ठ दिखा कर कहा - " खबरदार, जो आगे बढ़ा।"
गाड़ीवान गाड़ी छोड़कर खड़ा हो गया और कह दिया कि यह ललितपुर का एक कसाई है। रज्जब ने भी कहा कि वह बहुत गरीब है और उसकी औरत बहुत बीमार है। लाठीवाले आदमी (ठाकुर) ने कहा, "इसका नाम रज्जब है। छोड़ो, चलो यहाँ से।" किन्तु दूसरे लाठीवाले ने कहा कि वह कसाई-वसाई कुछ नहीं मानता और रज्जब ने पैसे नहीं दिए तो वह उसकी खोपड़ी फोड़ देगा। ठाकुर ने उसे डाँट्कर कहा - "खबरदार, जो उसे छुआ। नीचे उतरो, नहीं तो तुम्हारा सिर चूर किए देता हूँ। वह (रज्जब) मेरी शरण में आया था।" फिर ठाकुर ने गाड़ीवान को गाड़ी हाँकने का हुक्म देते हुए उसे हिदायत दी कि रज्जब को सही-सलामत उसके ठिकाने तक पहुँचा देना।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता कि बुन्देलवासी प्राणों की बाजी लगाकर भी शरणागत की रक्षा करता है। उस दिन ठाकुर को पैसों की जरूरत थी पर उन्होंने अपने धर्म का पालन किया और अपने द्वार पर आए शरणार्थी की रक्षा की।
बुंदेलखंड के रहने वाले राजपूत बुंदेला कहलाते हैं। बुंदेला वीर जाति है। उसके अपने जीवन मूल्य हैं जिन्हें प्राण रहते वे पूरी ईमानदारी से निभाते हैं। उनमें से एक है - शरणागत की रक्षा। ठाकुर बुंदेला था। वह मड़पुरा का एक ठाकुर था जिसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उनके पास थोड़ी-सी जमीन थी जिसको किसान जोतते थे। उसका अपना हल-बैल कुछ नहीं था। वह अपने किसानों से दो-तीन साल का पेशगी लगान सरलता से वसुल कर लेता था। उसके छोटे से मकान को भी गाँववाले आदरपूर्वक गढ़ी कहकर पुकारते थे। ठाकुर को डर के मारे राजा शब्द से संबोधित करते थे।
रज्जब एक कसाई था जो अपना व्यापार करके ललितपुर लौट रहा था। उसकी पत्नी को ज्वर आ गया था और साथ में दो-तीन सौ की बड़ी रकम थी। उसने मड़पुरा में ठहर जाने का निश्चय किया। मड़पुरा हिन्दुओं का गढ़ था। किसी ने उस मुसलमान को रात भर का आश्रय नहीं दिया। तब वह ठाकुर के द्वार पर पहुँचा। जब उसने अपना वास्तविक परिचय ठाकुर साहब को बताया तब ठाकुर की आँखों में खून उतर आया। उसने कड़ककर कह - "जानता है, यह किसका घर है? यहाँ तक आने की हिम्मत कैसे की तूने?"
रज्जब ने आशा भरे स्वर में कहा - "यह राजा का घर है। इसलिए शरण में आया हूँ।" ठाकुर समझ गया कि कसाई होने के कारण किसी ने उसे शरण नहीं दी है। ठाकुर ने उसे अपने यहाँ ड्योढ़ी पर एक रात व्यतीत करने की आज्ञा दे दी किन्तु इस हिदायत के साथ कि वह सवेरे जल्दी चला जाएगा। दोनों पति-पत्नी सो गए। काफ़ी रात बीत जाने पर कुछ लोगों ने इशारे से ठाकुर को बुलाया। आगन्तुकों में से एक ने कहा - "दाऊजू! आज तो खाली हाथ लौटे हैं। कल संध्या का सगुन बैठा है।" आगन्तुक ने ठाकुर को बताया कि एक कसाई रुपए की मोट बाँधे उसी ओर आया है। किन्तु वे ज़रा देर से पहुँचे और वह खिसक गया।
दरअसल ठाकुर साहब लुटेरों के एक समूह के सरदार थे जो रात के समय मालदार राहगीरों को लूटा करते थे।
ठाकुर जानता था कि वह कसाई और कोई नहीं बल्कि रज्जब ही है। रज्जब उसकी शरण में आया हुआ है। शरण में आए व्यक्ति की रक्षा करना बुंदेला का कर्त्तव्य है। वह अपने साथियों को रज्जब की सूचना नहीं देता है। वह अपने साथियों का मन बदलने के लिए उनसे कहता है कि वह कसाई का पैसा न छुएगा क्योंकि वह बुरी कमाई है। परन्तु उसके साथी उसकी बातों से सहमत नहीं होते हैं। ठाकुर ने अपने साथियों को वापस भेज दिया। सवेरे ठाकुर ने देखा कि रज्जब नहीं गया। पत्नी की तबीयत ठीक नहीं थी। ठाकुर ने रज्जब को तुरन्त वहाँ से चले जाने का हुक्म दिया। रज्जब गाँव के बाहर एक पेड़ के नीचे अपनी पत्नी के पास बैठा हिन्दुओं को मन ही मन में कोस रहा था।
रज्जब ने एक गाड़ी किराए पर ली। रज्जब की पत्नी की तबीयत ज़्यादा बिगड़ गई। गाड़ीवान ने रज्जब से अधिक पैसों की माँग की जिसे रज्जब को मानना पड़ा। यात्रा करते हुए साँझ हो गई। गाँव दूर था। कुछ दूर जाने पर तीन चार लोगों ने बैलों का रास्ता रो लिया। उन लोगों ने लट्ठ दिखा कर कहा - " खबरदार, जो आगे बढ़ा।"
गाड़ीवान गाड़ी छोड़कर खड़ा हो गया और कह दिया कि यह ललितपुर का एक कसाई है। रज्जब ने भी कहा कि वह बहुत गरीब है और उसकी औरत बहुत बीमार है। लाठीवाले आदमी (ठाकुर) ने कहा, "इसका नाम रज्जब है। छोड़ो, चलो यहाँ से।" किन्तु दूसरे लाठीवाले ने कहा कि वह कसाई-वसाई कुछ नहीं मानता और रज्जब ने पैसे नहीं दिए तो वह उसकी खोपड़ी फोड़ देगा। ठाकुर ने उसे डाँट्कर कहा - "खबरदार, जो उसे छुआ। नीचे उतरो, नहीं तो तुम्हारा सिर चूर किए देता हूँ। वह (रज्जब) मेरी शरण में आया था।" फिर ठाकुर ने गाड़ीवान को गाड़ी हाँकने का हुक्म देते हुए उसे हिदायत दी कि रज्जब को सही-सलामत उसके ठिकाने तक पहुँचा देना।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता कि बुन्देलवासी प्राणों की बाजी लगाकर भी शरणागत की रक्षा करता है। उस दिन ठाकुर को पैसों की जरूरत थी पर उन्होंने अपने धर्म का पालन किया और अपने द्वार पर आए शरणार्थी की रक्षा की।
सती
शिवानी
प्रश्न
मदालसा का चरित्र-चित्रण करते हुए यह बताइए कि मदालसा किस प्रकार अपनी सहयात्री महिलाओं को अपनी ओर आकर्षित करके मूर्ख बनाने में सफल हो जाती है जबकि वे महिलाएँ भी आधुनिक युग के अनुरूप शिक्षित हैं? कहानी के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
शिवानी हिन्दी की एक प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं। इनका वास्तविक नाम गौरा पन्त
था किन्तु ये शिवानी नाम से लेखन करती थीं।इनकी
शिक्षा शन्तिनिकेतन और कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुई। साठ और सत्तर के दशक में, इनकी लिखी कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी पाठकों के बीच
अत्यधिक लोकप्रिय हुए और आज भी लोग उन्हें बहुत चाव से पढ़ते हैं। लखनऊ से निकलने वाले पत्र ‘स्वतन्त्र भारत’ के लिए ‘शिवानी’ ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा।
शिवानी की कहानियों में पर्वतीय समाज से संबंधित समस्याओं, प्रथाओ तथा मनोभावों का चित्रण हुआ है। इन्होंने अपनी
रचनाओं में सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से संघर्ष करती हुई नारी को प्रस्तुत किया है।
इनकी भाषा में संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का प्रयोग किया गया है।
1982 में शिवानी जी को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से अलंकृत किया गया।
इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं -विष कन्या, करिए छिमा, लालहवेली, अपराधिनी, चार दिन आदि
(कहानी संग्रह)
चौदह फेरे, श्मशान चम्पा, भैरवी, कैंजा, कृष्णकली, मायापुरी,आकाश आदि (उपन्यास)
शिवानी द्वारा रचित ’सती’ कहानी में नारी के अनेक रूप दिखाए गए हैं। पढ़ी-लिखी शिक्षित नारियाँ भी मूल रूप से भावुक होती हैं और भावुकता के बहाव में बहकर अनजान स्त्री की बातों पर जल्दी विश्वास कर लेती हैं और ठगी जाती हैं। प्रयाग के रेलवे स्टेशन पर चार महिलाओं के नाम रिज़र्वेशन स्लिप में थे। जिनमें से तीन पहले आकर बैठ जाती हैं। एक महाराष्ट्री, दूसरी पंजाबी, तीसरी लेखिका स्वयं थी, चौथी अभी आई नहीं थी। ट्रेन में महाराष्ट्री और पंजाबी, दोनों महिलाएँ भारी-भरकम सामानों के साथ लदी थी। महाराष्ट्री महिला अपना सामान तरतीब से लगाकर एक मराठी पत्रिका पढ़ने में व्यस्त थी। दूसरी पंजाबी महिला का सारा सामान बिखरा था। उसने अपना परिचय दिया कि वह विस्थापित स्त्रियों के लिए बनाए गए आश्रम की संचालिका है और अभी विदेश से लौटी है। वह किसी सामाजिक गोष्ठी में भाग लेने लखनऊ जा रही है। दोनों महिलाएँ उच्चवर्गीय समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं। दोनों अपने अहम भाव में डूबकर दूसरों से अत्यंत औपचारिकपूर्ण व्यवहार करती हैं। गाड़ी जैसे ही चलने लगती है कि चौथी महिला का डिब्बे में प्रवेश होता है। छूटती हुई गाड़ी में हाँफती हुई, सामान के साथ चढ़ने वाली चौथी महिला यात्री का नाम मदालसा था। जिसका डिब्बे में प्रवेश मात्र बाकी महिला सहयात्रियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए काफ़ी था। अपने भारी भरकम प्रभावशाली व्यक्तित्व, छह फुट साढ़े दस इंच लम्बे कद का एहसास उसने स्वयं घुसते ही "केम बेन, बहुत लम्बी हूँ न मैं" कहकर करा दिया था। उसकी भाषा से स्पष्ट हो गया कि वह एक गुजराती महिला थी। वाचाल मदालसा ने डिब्बे में घुसते ही अन्य महिलाओं का परिचय लेना प्रारम्भ कर दिया। समाज सेविका ने बड़े रूखे मन से एक दो प्रश्नों के उत्तर दिए भी परन्तु महाराष्ट्री महिला ने तो भाषा न समझने का बहाना बनाकर छुटकारा पा लिया। परन्तु मदालसा हार मानने वालों में से नहीं थी। उसने शुद्ध अंग्रेजी में अपना परिचय देते हुए बता दिया कि वह मदालसा सिंघाड़िया है और कल ही प्रिटोरिया से अपने पति का शव लेने आई है जो पिछले वर्ष एक पर्वतारोही दल के साथ भारत आए थे, वही एक एवलैंस (तूफान) के नीचे दबकर मारे गए। मदालसा ने यह कहकर सबका ध्यान व सहानुभूति अर्जित कर ली।
अपनी सहयात्री मदालसा के प्रति उपेक्षित व्यवहार रखने वाली महाराष्ट्री व पंजाबी महिला उसके पति की मृत्यु की दुखद घटना सुनकर द्रवित हो जाती हैं तथा भावविभोर हो उसकी मदद करने पर उतारू हो जाती है। नारी हृदय कितना कोमल व सहिष्णु होता है कि उसे परिवर्तित होने में देर नहीं लगती। परन्तु मदालसा में उसका विरोधाभास देखने में आता है। वह वाक्पटु नारी अपनी सहयात्री महिलाओं को अपने कपट-जाल में फँसाने के लिए भूमिका बाँधती है। अपने पति के साथ सती होने का अपना दृढ़ निश्चय सुनाकर सबकी सहानुभूति प्राप्त करती है। वह सती होने को अपने खानदान की परम्परा मानते हुए अपने सहयात्री महिलाओं की सहानुभूति बटोरने के लिए कहती है - "मेरी परनानी तो राजा राममोहन राय और सर विलियम बैंटिंक को भी घिस्सा देकर सती हो गई थीं।"
मदालसा में वैधव्य का कोई चिह्न नहीं था बल्कि वह लम्बी, सुदृढ़, स्वस्थ व गठीले बदन की अधेड़ महिला लग रही थी जिसमें स्वभाव की उत्तमता थी। सैलून के कटे सँवरे बालों के साथ-साथ उसके व्यवहार में भी एक अल्हड़पन था। मदालसा एक अच्छी अभिनेत्री व नारी मनोविज्ञान से अवगत थी। पूछने पर कि क्या वह अपने पति के शव को लेकर वापस जाएगी, उसने बताया कि वह अपने पति के साथ सती होने जारी है। वह अपने उद्देश्य में सफल हो जाती है और महिला सहयात्रियों को अपने भोजन में कुछ नशीला पदार्थ मिलाकर खिला देती है। नशे के कारण वे सभी गहरी नींद में सो जाती हैं। मदालसा उनका सारा माल लेकर अगले स्टेशन पर उतर जाती है। वह एक ऐसी स्त्री है जिसने छल-फरेब का सहारा लेकर समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व किया है जो मानव के सद्गुणों का फायदा उठाकर उनके साथ विश्वासघात करता है।
शिवानी द्वारा रचित कहानी ’सती’ एक व्यंग्यात्मक कहानी है। इसमें लेखिका ने महिला यात्रियों के व्यवहार व चरित्र को दर्शाया है कि किस प्रकार पढ़ी-लिखी उच्चवर्गीय महिलाएँ अपने अहंभाव के कारण दूसरों से दूरी बनाए रखती हैं किन्तु शीघ्र ही अपने स्त्रियोचित व्यवहार का परिचय देते हुए अनजान लोगों से न सिर्फ़ बातें बल्कि उनपर पूर्ण भरोसा भी करने लगती हैं और ठगी का शिकार बनती हैं। स्त्रियाँ अत्यंत भावुक होती हैं। भावुकता मानव का गुण है न कि दुर्गुण लेकिन हमें अपने आसपास की परिस्थितियों का भी सही अनुमान होना चाहिए और उसी के अनुरूप हमें व्यवहार भी करना चाहिए और किसी भी स्थिति में तर्कशक्ति और व्यावहारिक ज्ञान का परित्याग नहीं करना चाहिए।
शिवानी द्वारा रचित कहानी ’सती’ एक व्यंग्यात्मक कहानी है। इसमें लेखिका ने महिला यात्रियों के व्यवहार व चरित्र को दर्शाया है कि किस प्रकार पढ़ी-लिखी उच्चवर्गीय महिलाएँ अपने अहंभाव के कारण दूसरों से दूरी बनाए रखती हैं किन्तु शीघ्र ही अपने स्त्रियोचित व्यवहार का परिचय देते हुए अनजान लोगों से न सिर्फ़ बातें बल्कि उनपर पूर्ण भरोसा भी करने लगती हैं और ठगी का शिकार बनती हैं। स्त्रियाँ अत्यंत भावुक होती हैं। भावुकता मानव का गुण है न कि दुर्गुण लेकिन हमें अपने आसपास की परिस्थितियों का भी सही अनुमान होना चाहिए और उसी के अनुरूप हमें व्यवहार भी करना चाहिए और किसी भी स्थिति में तर्कशक्ति और व्यावहारिक ज्ञान का परित्याग नहीं करना चाहिए।
जयशंकर प्रसाद
जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक जयशंकर प्रसाद ने संस्कृत, अंग्रेज़ी, पालि, प्राकृत भाषाओं का गहन अध्ययन किया। इसके बाद भारतीय इतिहास, संस्कृति, दर्शन, साहित्य और पुराण कथाओं का एकनिष्ठ स्वाध्याय कर इन विषयों पर एकाधिकार प्राप्त किया।
एक महान लेखक के रूप में प्रख्यात जयशंकर प्रसाद के तितली, कंकाल और इरावती जैसे उपन्यास और आकाशदीप, मधुआ और पुरस्कार जैसी कहानियाँ उनके गद्य लेखन की अपूर्व ऊँचाइयाँ हैं। कामायनी इनकी विख्यात रचना है जिसे हिन्दी का महाकाव्य माना जाता है।
एक महान लेखक के रूप में प्रख्यात जयशंकर प्रसाद के तितली, कंकाल और इरावती जैसे उपन्यास और आकाशदीप, मधुआ और पुरस्कार जैसी कहानियाँ उनके गद्य लेखन की अपूर्व ऊँचाइयाँ हैं। कामायनी इनकी विख्यात रचना है जिसे हिन्दी का महाकाव्य माना जाता है।
इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारत के प्राचीन ऐतिहासिक गौरव को वर्तमान के साथ जोड़कर अपने महान साहित्यकार होने का कर्त्तव्य निभाया।
प्रसाद की भाषा सहज, स्वाभाविक तथा भाव-प्रधान है जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता है।
प्रसाद ने दासी कहानी में स्त्री जाति की प्रतिष्ठा और गौरव को अति महानता से दर्शाया है और पुरुषवादी समाज-व्यवस्था में स्त्री को नैतिकता, मानवता, प्रेम, दया , कर्त्त्वव्यनिष्ठता, सहानुभूति का पर्याय स्वीकार किया है।
दासी कहानी में इरावती और फ़िरोज़ा दो स्त्री पात्र है और दोनों ही दासी हैं जो विषम परिस्थितियों में भी अपने कर्त्तव्यों का पालन करती हैं। इरावती अपने को एक क्रीत दासी मानती है जिसे म्लेच्छों ने मुलतान की लूट में पकड़ लिया था और म्लेच्छों के कठोर व बर्बर व्यवहार के बीच वह जीवित ही नहीं रही बल्कि अपने पथ से भी नहीं डिगी। एक दिन कन्नौज के चौराहे पर घोड़ों के साथ ही आतताइयों ने उसे पाँच सौ दिरम के बदले काशी के एक महाजन के हाथों बेच दिया। वह जानती थी कि उसका शरीर बिका है, आत्मा नहीं। बिक्री के दौरान उसने अपने स्वामी की अनेक उचित-अनुचित शर्तों को स्वीकार किया था जिसका पालन करने से वह अपने को अपवित्र मानने लगी थी। बलराज के प्रेम-प्रदर्शन पर वह उससे कहती है कि अब वह उसके स्नेह के योग्य नहीं रही, वह अपवित्र हो चुकी है। इस प्रकार इरावती अपने आदर्श स्त्री होने का परिचय देती है। इरावती का आदर्श उस समय उभरकर सामने आता है जब बलराज यह कहता है कि पशुओं के समान मनुष्य नहीं बिक सकते तब इरावती कहती है कि उसने सिर पर तृण रखकर स्वयं को बेचने की स्वीकृति दी थी, वह इस प्रण को कैसे तोड़ सकती है।
इरावती अपने प्रेमी बलराज और अपने मालिक दोनों के प्रति निष्ठावान है व ईमानदारी से व्यवहार करती है। जब अहमद की तलवार उसके स्वामी धनदत्त के गले पर पड़ी थी तब इरावती ने "इन्हें छोड़ दो, न मारो" कहती हुई तलवार के सामने आ गई थी।
इरावती में आत्मसम्मान का भाव भी है। बलराज के व्यवहार के प्रति वह रुष्ट थी। वह फ़िरोज़ा से कहती है -"मेरे दुखी होने पर जो मेरे साथ रोने आता है, उसे मैं अपना मित्र नहीं जान सकती, फ़िरोज़ा। मैं तो देखूँगी कि वह मेरे दुख को कितना कम कर सका है।"
फ़िरोज़ा कहानी की अन्य पात्रा है जो अहमद से प्रेम करती है परन्तु अपने उसूलों के कारण उसे अपनाती नहीं है क्योंकि अहमद ने उसकी आज़ादी की कीमत के एक हज़ार सोने के सिक्के राजा तिलक को नहीं चुकाए थे। फ़िरोज़ा तुर्क बाला थी जिसमें अल्हड़पन, चंचलता और ज़िन्दगी जीने की पूरी लालसा थी। फ़िरोज़ा दिलेर व हिम्म्ती स्त्री है। वह बलराज को आत्महत्या करने से रोकती है। उसका मानना है कि युद्ध में मरना वीरता का प्रतीक है किन्तु आत्महत्या करना मूर्खता है। वह हर परिस्थिति में खुश रहकर जीना चाहती है। वह आशावादी महिला है। वह अत्यंत साहसी और निडर स्त्री है। जब अहमद इरावती पर बुरी दृष्टि डालता है तब फ़िरोज़ा उसका सामना करती है और इरावती के सम्मान की रक्षा करती है। वह अहमद का इसलिए भी विरोध करती है क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि हिन्दू जाटों और मुसलमानों के बीच युद्ध हो, किन्तु अहमद उसका कहना नहीं मानता है, युद्ध करता है और युद्ध में मारा जाता है। कहानी के अंत में फ़िरोज़ा के त्यागमय जीवन की झलक मिलती है। वह प्रेम की पुजारिन बन जाती है जो अहमद की समाधि पर रोज़ झाड़ू लगाती है तथा दीप जलाकर अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करती है।
निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि स्त्री समाज में मात्र देवी या दासी बनी पिसती रही, पर कभी इन बेड़ियों को तोड़ने को उद्यत न हुई किन्तु जयशंकर प्रसाद ने मानव जीवन में स्त्री की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए उसके आदर्श स्वरूप को प्रस्तुत किया और स्त्री-स्वातंत्र्य की वकालत इन शब्दो में की -
तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की।
समरसता है सम्बन्ध बनी, अधिकार और अधिकारी की।।
गौरी
सुभद्रा कुमारी चौहान
प्रश्न - सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित "गौरी" भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को अभिव्यक्त करने वाली एक भावानात्मक कहानी है जिसमें एक युवती के माध्यम से आदर्श भारतीय स्त्री के गौरवशाली विशेषताओं का उल्लेख किया गया है - कहानी के माध्यम से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर -
सुभद्रा कुमारी चौहान हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं। उनकी सुप्रसिद्धि झाँसी की रानी कविता के कारण है। ये राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रही हैं, किन्तु इन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएँ सहने के पश्चात अपनी अनुभूतियों को कहानी में भी व्यक्त किया। इनकी भाषा सेहज तथा काव्यात्मक है, इस कारण इनकी रचना की सादगी हृदयग्राही है। इन्होंने अपनी भाषा में खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग किया है।
प्रमुख रचनाएँ - 'बिखरे मोती' उनका पहला कहानी संग्रह है। इसमें भग्नावशेष, होली, पापीपेट, मंझलीरानी, परिवर्तन, दृष्टिकोण, कदम के फूल, किस्मत, मछुये की बेटी, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, अनुरोध, व ग्रामीणा कुल १५ कहानियाँ हैं।
मुकुल और त्रिधारा (कविता-संग्रह)
'गौरी’ एक चरित्र प्रधान भावानात्मक कहानी है जिसकी पृष्ठभूमि में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की गूँज सुनाई पड़ती है। सत्याग्रह आंदोलन की लहर सारे देश-भर में बड़ी तीव्रता से फैल रही थी। अँग्रेज अत्याचार और दमन का सहारा लेकर शहर-शहर में गिरफ़्तारियाँ तेज़ कर रहे थे। सरकार देश-भक्त स्वतंत्रता-सेनानियों को सज़ा दे रही थीं। देश में धारा १४४ लागू कर दी गई थी और जनता के सभी मौलिक अधिकारों का दमन किया जा रहा था। गाँधी जी के नेतृत्व में देश व्यापी आंदोलन तेज़ी से बढ़ रहा था जिसमें देशवासी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे।
प्रस्तुत कहानी में गौरी एक सशक्त नारी चरित्र है जो अपने स्नेह और त्याग से भारतीय स्त्री के गौरव को महामंडित करती है।
गौरी, बाबू राधाकृष्ण की इकलौती, उन्नीस वर्षीय, सुंदर कन्या थी। राधाकृष्ण तथा उनकी पत्नी कुंती गौरी के विवाह को लेकर अत्यंत चिंतित रहते थे। वे अपनी इकलौती बेटी का विवाह किसी योग्य वर के साथ करना चाहते थे। गौरी को अपने माता-पिता का इस तरह परेशान रहना अच्छा नहीं लगता था। वह स्वभाव से दृढ़ निश्चयी और निर्भीक थी। वह चाहती थी कि अपने पिता से जाकर कह दे कि वह विवाह को अधिक महत्त्व नहीं देती है और पिता के लिए उसका विवाह इतना महत्त्वपूर्ण है तो किसी से भी करवा दे। वह हर हाल में सुखी और संतुष्ट रहेगी। किंतु एक भारतीय युवती होने के कारण गौरी में लज्जा और संकोच का भाव है। अत: बहुत कोशिश के बावज़ूद वह अपने माता-पिता से कुछ नहीं कह पाती है।
राधाकृष्ण गौरी के लिए सीताराम जी को देखने गए थे किन्तु उन्हें निराशा हाथ लगी। उन्होंने लौटकर अपनी पत्नी को बताया कि वह लड़का नहीं बल्कि ३५-३६ वर्ष का आदमी है जिसकी पत्नी का देहांत हो चुका है और उसके दो बच्चे भी हैं। बच्चों की परवरिश के लिए ही वे दूसरा विवाह करना चाहते हैं। सीताराम जी को पत्नी की नहीं बल्कि अपने बच्चों के लिए एक धाय की जरूरत थी किन्तु सीताराम जी स्वभाव से नेक और ईमानदार इनसान थे।
" ...वह आदमी कपटी नहीं है। उनके भीतर और बाहर कुछ हो ही नहीं सकता। हृदय तो दर्पण की तरह साफ़ है। पर उनका खादी का कुरता, गाँधी टोपी, फटे-फटे चप्पल देखकर जी हिचकता है।"
भले ही गौरी और उसकी माँ कुंती को सीताराम जी के गुण अच्छे लगे हों पर राधाकृष्ण जी ने बेटी के लिए नया वर खोज लिया जिसकी उम्र २४-२५ साल की थी और नायब तहसीलदार के पद पर नियुक्त था। गौरी विवेकवान है। उसे अच्छे-बुरे की पहचान है। वह सीताराम जी की देशभक्ति व सादगी के विषय में जानकर मन ही मन उन्हें अपना पति स्वीकार कर लेती है। गौरी का देशभक्ति से प्रभावित होना उसके अन्तर्मन में छिपे देशभक्ति के भावों को उजागर करता है। गौरी का मानना है कि यदि सीताराम जी चाहते तो बी०ए० पास करने के बाद वे भी प्रयत्न करके नायब तहसीलदार बन सकते थे और अँग्रेजी सरकार की गुलामी करने में अपना गौरव समझते लेकिन उन्होंने देश को गुलामी से मुक्त करने का संघर्षमयी रास्ता चुना है। सीताराम जी को याद करते ही गौरी का माथा श्रद्धा से झुक जाता है।
गौरी कर्त्तव्यनिष्ठ युवती है। अपना कर्त्तव्य निश्चित करने में उसे ज़रा भी समय नहीं लगता था। सीताराम जी के जेल जाते ही बच्चों के प्रति अपना कर्त्तव्य उसने निश्चित कर लिया। वह माँ के पास जाकर, सारा साहस बटोर कर दृढ़ता से कहती है-"माँ मैं कानपुर जाऊँगी।" उसमें ममत्व का भाव था। सीताराम जी के दो छोटे-छोटे प्यारे बच्चों ने गौरी के अंदर ममता का भाव जगा दिया था। सीराराम जी के जेल चले जाने पर उनके बच्चों की देखभाल कौन करेगा? यह चिन्ता इतनी बलवती थी कि उसने गौरी को अपना कर्त्तव्य निश्चित करने का अपूर्व साहस दिया। इस तरह वह ज़िद करके नौकर के साथ कानपुर जाकर बच्चों की देखभाल करती है। हर महीने बच्चों की कुशलता का समाचार कारावास में सीताराम जी को भिजवाती है। सज़ा पूरी होने पर सीताराम जी जब घर पहुँचते हैं तो बच्चों को गौरी के साथ देखकर अचंभित हो जाते हैं। गौरी झुककर उनकी पग-धुलि अपने माथे से लगाकर उन्हें अपना पति स्वीकार करती है।
गौरी त्याग की मूरत है। तहसीलदार साहब से उसका विवाह एक वर्ष बाद हो जाता, जहाँ उसे धन-दौलत की कमी नहीं रहती। परन्तु उसने उसे छोड़कर सीताराम जी के दोनों बच्चों की माँ बनने का निश्चय किया। इससे उसकी त्याग और वात्सल्य की भावना उभरकर सामने आती है। इस प्रकार विवेकपूर्ण कार्य करके गौरी ने सच्ची भारतीय नारी का उदाहरण प्रस्तुत किया है।
निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि गौरी एक कर्त्तव्यनिष्ठ, हठी, साहसी, त्यागी, दृढ़निश्चयी, विवेकी एवं ममत्वपूर्ण नारी थी। वह अपने चारित्रिक गुणों से सभी के मन को मोह लेती है, साथ ही पाठकों में देशप्रेम का भाव भी जगाती है।
उत्तर -
सुभद्रा कुमारी चौहान हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं। उनकी सुप्रसिद्धि झाँसी की रानी कविता के कारण है। ये राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रही हैं, किन्तु इन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएँ सहने के पश्चात अपनी अनुभूतियों को कहानी में भी व्यक्त किया। इनकी भाषा सेहज तथा काव्यात्मक है, इस कारण इनकी रचना की सादगी हृदयग्राही है। इन्होंने अपनी भाषा में खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग किया है।
प्रमुख रचनाएँ - 'बिखरे मोती' उनका पहला कहानी संग्रह है। इसमें भग्नावशेष, होली, पापीपेट, मंझलीरानी, परिवर्तन, दृष्टिकोण, कदम के फूल, किस्मत, मछुये की बेटी, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, अनुरोध, व ग्रामीणा कुल १५ कहानियाँ हैं।
मुकुल और त्रिधारा (कविता-संग्रह)
'गौरी’ एक चरित्र प्रधान भावानात्मक कहानी है जिसकी पृष्ठभूमि में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की गूँज सुनाई पड़ती है। सत्याग्रह आंदोलन की लहर सारे देश-भर में बड़ी तीव्रता से फैल रही थी। अँग्रेज अत्याचार और दमन का सहारा लेकर शहर-शहर में गिरफ़्तारियाँ तेज़ कर रहे थे। सरकार देश-भक्त स्वतंत्रता-सेनानियों को सज़ा दे रही थीं। देश में धारा १४४ लागू कर दी गई थी और जनता के सभी मौलिक अधिकारों का दमन किया जा रहा था। गाँधी जी के नेतृत्व में देश व्यापी आंदोलन तेज़ी से बढ़ रहा था जिसमें देशवासी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे।
प्रस्तुत कहानी में गौरी एक सशक्त नारी चरित्र है जो अपने स्नेह और त्याग से भारतीय स्त्री के गौरव को महामंडित करती है।
गौरी, बाबू राधाकृष्ण की इकलौती, उन्नीस वर्षीय, सुंदर कन्या थी। राधाकृष्ण तथा उनकी पत्नी कुंती गौरी के विवाह को लेकर अत्यंत चिंतित रहते थे। वे अपनी इकलौती बेटी का विवाह किसी योग्य वर के साथ करना चाहते थे। गौरी को अपने माता-पिता का इस तरह परेशान रहना अच्छा नहीं लगता था। वह स्वभाव से दृढ़ निश्चयी और निर्भीक थी। वह चाहती थी कि अपने पिता से जाकर कह दे कि वह विवाह को अधिक महत्त्व नहीं देती है और पिता के लिए उसका विवाह इतना महत्त्वपूर्ण है तो किसी से भी करवा दे। वह हर हाल में सुखी और संतुष्ट रहेगी। किंतु एक भारतीय युवती होने के कारण गौरी में लज्जा और संकोच का भाव है। अत: बहुत कोशिश के बावज़ूद वह अपने माता-पिता से कुछ नहीं कह पाती है।
राधाकृष्ण गौरी के लिए सीताराम जी को देखने गए थे किन्तु उन्हें निराशा हाथ लगी। उन्होंने लौटकर अपनी पत्नी को बताया कि वह लड़का नहीं बल्कि ३५-३६ वर्ष का आदमी है जिसकी पत्नी का देहांत हो चुका है और उसके दो बच्चे भी हैं। बच्चों की परवरिश के लिए ही वे दूसरा विवाह करना चाहते हैं। सीताराम जी को पत्नी की नहीं बल्कि अपने बच्चों के लिए एक धाय की जरूरत थी किन्तु सीताराम जी स्वभाव से नेक और ईमानदार इनसान थे।
" ...वह आदमी कपटी नहीं है। उनके भीतर और बाहर कुछ हो ही नहीं सकता। हृदय तो दर्पण की तरह साफ़ है। पर उनका खादी का कुरता, गाँधी टोपी, फटे-फटे चप्पल देखकर जी हिचकता है।"
भले ही गौरी और उसकी माँ कुंती को सीताराम जी के गुण अच्छे लगे हों पर राधाकृष्ण जी ने बेटी के लिए नया वर खोज लिया जिसकी उम्र २४-२५ साल की थी और नायब तहसीलदार के पद पर नियुक्त था। गौरी विवेकवान है। उसे अच्छे-बुरे की पहचान है। वह सीताराम जी की देशभक्ति व सादगी के विषय में जानकर मन ही मन उन्हें अपना पति स्वीकार कर लेती है। गौरी का देशभक्ति से प्रभावित होना उसके अन्तर्मन में छिपे देशभक्ति के भावों को उजागर करता है। गौरी का मानना है कि यदि सीताराम जी चाहते तो बी०ए० पास करने के बाद वे भी प्रयत्न करके नायब तहसीलदार बन सकते थे और अँग्रेजी सरकार की गुलामी करने में अपना गौरव समझते लेकिन उन्होंने देश को गुलामी से मुक्त करने का संघर्षमयी रास्ता चुना है। सीताराम जी को याद करते ही गौरी का माथा श्रद्धा से झुक जाता है।
गौरी कर्त्तव्यनिष्ठ युवती है। अपना कर्त्तव्य निश्चित करने में उसे ज़रा भी समय नहीं लगता था। सीताराम जी के जेल जाते ही बच्चों के प्रति अपना कर्त्तव्य उसने निश्चित कर लिया। वह माँ के पास जाकर, सारा साहस बटोर कर दृढ़ता से कहती है-"माँ मैं कानपुर जाऊँगी।" उसमें ममत्व का भाव था। सीताराम जी के दो छोटे-छोटे प्यारे बच्चों ने गौरी के अंदर ममता का भाव जगा दिया था। सीराराम जी के जेल चले जाने पर उनके बच्चों की देखभाल कौन करेगा? यह चिन्ता इतनी बलवती थी कि उसने गौरी को अपना कर्त्तव्य निश्चित करने का अपूर्व साहस दिया। इस तरह वह ज़िद करके नौकर के साथ कानपुर जाकर बच्चों की देखभाल करती है। हर महीने बच्चों की कुशलता का समाचार कारावास में सीताराम जी को भिजवाती है। सज़ा पूरी होने पर सीताराम जी जब घर पहुँचते हैं तो बच्चों को गौरी के साथ देखकर अचंभित हो जाते हैं। गौरी झुककर उनकी पग-धुलि अपने माथे से लगाकर उन्हें अपना पति स्वीकार करती है।
गौरी त्याग की मूरत है। तहसीलदार साहब से उसका विवाह एक वर्ष बाद हो जाता, जहाँ उसे धन-दौलत की कमी नहीं रहती। परन्तु उसने उसे छोड़कर सीताराम जी के दोनों बच्चों की माँ बनने का निश्चय किया। इससे उसकी त्याग और वात्सल्य की भावना उभरकर सामने आती है। इस प्रकार विवेकपूर्ण कार्य करके गौरी ने सच्ची भारतीय नारी का उदाहरण प्रस्तुत किया है।
निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि गौरी एक कर्त्तव्यनिष्ठ, हठी, साहसी, त्यागी, दृढ़निश्चयी, विवेकी एवं ममत्वपूर्ण नारी थी। वह अपने चारित्रिक गुणों से सभी के मन को मोह लेती है, साथ ही पाठकों में देशप्रेम का भाव भी जगाती है।
मजबूरी
मन्नू भंडारी
प्रश्न
"मजबूरी" दो पीढ़ियों के अलगाव की मार्मिक कहानी है। उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
मन्नू भंडारी
प्रश्न
"मजबूरी" दो पीढ़ियों के अलगाव की मार्मिक कहानी है। उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
मन्नू भंडारी हिन्दी की सुप्रसिद्ध लेखिका हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा भारतीय समाज की स्त्रियों को नई आवाज़ दी है।
उन्होंने एम.ए. तक शिक्षा पाई और वर्षों तक दिल्ली के मिरांडा हाउस में अध्यापिका रहीं। धर्मयुग में धारावाहिक रूप से प्रकाशित उपन्यास आपका बंटी से लोकप्रियता प्राप्त करने वाली मन्नू भंडारी विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ की अध्यक्षा भी रहीं। इन्हें हिन्दी अकादमी दिल्ली के शिखर सम्मान, राजस्थान संगीत अकादमी के व्यास सम्मान आदि अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।
मन्नू भंडारी की भाषा संस्कृतनिष्ठ मुहावरेदार हिन्दी है जिसमें तत्सम शब्दों की बाहुल्य है। भाषा पात्रानुकूल तथा प्रभावोत्पादक है।
इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं - एक प्लेट सैलाब, मैं हार गई, तीन निगाहों की तस्वीर, यही सच है, एक इंच मुस्कान, आपका बंटी, महाभोज, आदि
मन्नू भंडारी द्वारा लिखित कहानी "मजबूरी" अम्मा और उसकी बहू रमा के माध्यम से दो पीढ़ियों के बाच के अंतर को अत्यंत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करता है। कहानी की कथावस्तु के केंद्र में रमा का बेटा है जिसे अम्मा प्यार से बेटू पुकारती है। रमा दोबारा गर्भवती है और वह दो बच्चों की देखभाल एक साथ करने में असमर्थ है। अत: वह अपने बड़े बेटे बेटू को उसकी दादी के पास गाँव में छोड़कर बम्बई चली जाती है। एक वर्ष बाद जब वह दोबारा गाँव आती है तो उसे बेटू का व्यवहार देखकर बहुर निराशा होती है। लेखिका के शब्दों में - "जिस बेटू को वह छोड़ गई थी, और जिसे अब वह देख रही है, दोनों में कोई सामंजस्य ही नहीं था। बात-बात में उसकी ज़िद देखकर रमा का खून खौल जाता।" रमा अपने बेटे की यह स्थिति नहीं देख सकती थी। वह दिन भर दादी के साथ रहता है और शाम को गली-मुहल्ले के गंदे-गंदे बच्चों के साथ खेलता है। रमा का दूसरा बेटा पप्पू अब एक वर्ष का था। उसका मन था कि वह बेटू को अपने साथ बम्बई ले जाकर उसका भविष्य सँवार दे परन्तु दोनों बच्चों को साथ रखना अभी सम्भव नहीं था। रमा अम्मा से कहती भी है कि उन्होंने बेटू को बिगाड़कर धूल कर दिया है। लेकिन अम्मा पर इस बात का कोई असर नहीं पड़ा। रमा जिस बात से इतना परेशान थी, अम्मा के लिए वह एक सामान्य बात थी। उन्होंने कहा-"अरे बचपन में कौन ज़िद नहीं करता, बहू! रामेश्वर भी ऐसे की करता था। यह तो सच हूबहू उसी पर पड़ा है। समय आने पर सब अपने आप छूट जाएगा।" रमा वापस बम्बई चली गई लेकिन वह बेटू के लिए बहुत परेशान थी। बेटू के चार साल के होने पर रमा ने अम्मा से उसे गाँव के नर्सरी स्कूल में भर्ती करवाने को कहा जिसे अम्मा ने टाल दिया। दरअसल, अम्मा उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रही थीं जहाँ बच्चा पहली बार स्कूल पाँच-छ: साल की उम्र में जाता है लेकिन रमा नई पीढ़ी की थी, वह जानती थी कि बच्चों का बौद्धिक विकास आठ-दस वर्ष तक हो जाता है। वह उस समय में जो ग्रहण कर लेता है वही उसको आगे बढ़ाने में सहायक होता है।
दो वर्ष बाद जब रमा और रामेश्वर बेटू से मिलने गाँव आए तब पप्पू तीन साल का हो गया था। पप्पू को अंग्रेज़ी की छोटी-छोटी कविताएँ याद थीं किन्तु बेटू उम्र में बड़ा हो गया था पर उसके व्यवहार में कोई परिवर्तन नही आया। आखिरकार रमा बेटू को अपने साथ ले जाने का निर्णय करती है और अम्मा से कहती है -"...यदि आप सचमुच ही इसे प्यार करती हैं और इसका भला चाहती हैं तो इसे मेरे साथ भेज दीजिए, और इसके साथ दुश्मनी निभानी है तो रखिए इसे अपने पास।" रमा की इस बात का अम्मा के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने कहा -"मैं अनपढ़-गँवार औरत ठहरी, इसे लायक कहाँ से बनाऊँगी? तू इसे ले जा! चार दिन को मेरी ज़िन्दगी में हँसी-खुशी आ गई, इसी में तेरा बड़ा जस मानूँगी।"
रमा बेटू को लेकर अपनी माँ के घर चली आई लेकिन बेटू की तबीयत खराब होने पर अम्मा रात की गाड़ी से गई और बेटू को वापस लेकर आ गई। एक साल इसी प्रकार निकल गया। रमा ने दूसरे साल आकर देखा कि बेटू के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं आया। इस बार वह बेटू को लेकर बम्बई चली आई। नौकर भी उसके साथ गया था। पन्द्रह दिन के बाद नौकर ने लौटकर अम्मा को बताया कि बेटू खुश है। उसका मन बम्बई में लग गया है। बुझे मन से लेकिन बाहर खुशी प्रकट करते हुए अम्मा ने सवा रुपए का प्रसाद चढ़ाया।
लेखिका ने दो पीढ़ियों के बीच की अलग-अलग सोच से उत्पन्न दर्द को कहानी में उभारकर रख दिया है। अम्मा और रमा दोनों बेटू से बेहद प्यार करती हैं पर दोनों की सोच में समय के अनुसार परिवर्तन आ गया है। लेखिका ने दादी माँ के चरित्र के माध्यम से अनेक ऐसी नारियों के चरित्र को देखाने की कोशिश की है जो अकेलेपन और बुढ़ापे को झेलती हैं और मजबूरीवश बदलते समाजिक मूल्यों के साथ समझौता करती हैं।
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