आज़ादी
की लड़ाई में राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए हिन्दी व भारतीय भाषाओं ने महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभाई और जनमानस को एकता के सूत्र में पिरोए रखने का काम किया। स्वतंत्रता
पूर्व हिन्दी में प्रकाशित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने भारतीयों में आज़ादी का ज़ज़्बा
भरा और संघर्ष के लिए प्रेरित किया। लोकमान्य तिलक देवनागरी को ‘राष्ट्रलिपि’ और
हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ मानते थे। उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के दिसम्बर, १९०५ के
अधिवेशन में कहा था-
”भारतवर्ष
के लिए एक राष्ट्रभाषा की स्थापना करनी है, क्योंकि सबके लिए समान भाषा राष्ट्रीयता का महत्त्वपूर्ण
अंग है। समान भाषा के द्वारा हम अपने विचार दूसरों पर प्रकट करते हैं। अतएव यदि आप
किसी राष्ट्र के लोगों को एक-दूसरे के निकट लाना चाहें तो सबके लिए समान भाषा से
बढ़कर सशक्त अन्य कोई बल नहीं है।“
१९१७
में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद महात्मा गाँधी ने गुजरात प्रदेश के भड़ौच
गुजरात शिक्षा परिषद् के अधिवेशन में अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाने का विरोध किया
और हिन्दी को भारत की भाषा बनाने पर ज़ोर दिया। उन्होंने देश में शिक्षा माध्यम पर
चर्चा करते हुए हिन्दी भाषा की अनिवार्यता पर बल दिया था। उन्होंने कहा था - ”अगर
मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो, तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिए हमारे लड़के-लड़कियों की शिक्षा
बन्द कर दूँ और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूँ।“
आज़ादी
मिलने के पश्चात १४ सितम्बर १९४९ को संविधान की भाषा समिति ने हिन्दी को राजभाषा
के पद पर आसीन किया क्योंकि भारत की बहुसंख्यक जनता द्वारा हिन्दी भाषा का प्रयोग
किया जा रहा था। आज़ादी के बाद भले ही हिन्दी को राजभाषा का दर्ज़ा दे दिया गया
लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में हिन्दी की स्थिति बेहतर नहीं हो पाई है। दरअसल संविधान
की भाषा समिति ने हिन्दी विरोध की वज़ह से पंद्रह वर्षों के लिए अँग्रेजी को सहभाषा
का स्थान दे दिया और यह तय किया किया गया कि इस काल अवधि में देश में हिन्दी के
प्रचार-प्रसार के लिए व्यापक कार्य किए जाएँगे। लेकिन आज स्थिति यह है कि अँग्रेजी
ही इस देश की राजभाषा है और हिन्दी सहभाषा। राजनीति की भाषा और भाषा की राजनीति ने
मिलकर इस देश में हिन्दी व भारतीय भाषाओं की दशा और दिशा तय कर दी है।
भारतीय
समाज में भाषा का संबंध प्रत्यक्ष रूप से माँ से जोड़कर देखा जाता है क्योंकि एक
शिशु जो पहला शब्द बोलता है, वह
अमूमन अपनी माँ से सीखता है और वह उसकी मातृभाषा कहलाती है। १९५६ में भारतीय
संविधान के अनुच्छेद ३५० क. के अनुसार यह निर्देश दिया गया कि प्राथमिक शिक्षा
मातृभाषा में होनी चाहिए क्योंकि यह शिशु के सहज विकास के लिए अनिवार्य है। दुनिया
के प्रत्येक व्यक्ति का विकास उसके सामाजिक अवस्थान के अनुरूप होता है। एक बालक
जिस सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण में रहता है, उसी के अनुरूप
उसका व्यक्तित्व ढलता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की एक रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश
बच्चे विद्यालय जाने से घबराते हैं क्योंकि वहाँ जिस भाषा में शिक्षा प्रदान की
जाती है उस भाषा का प्रयोग उनके घरों में नहीं किया जाता। अनुसंधान के आधार पर यह
बात उभरकर आई है कि शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया मातृभाषा में तीव्र गति से होती है
क्योंकि बच्चों के लिए उस भाषा के शब्द ज्यादा परिचित होते हैं। अन्य भाषा में
पढ़ने के कारण उन्हें दोहरा बोझ उठाना पड़ता है जिससे बच्चों पर अतिरिक्त दबाव की
सृष्टि होती है। परिणामस्वरूप उनकी पठन-क्षमता क्षीण होती जाती है। इसे
“न्युरॉलोजिकल थियरी ऑफ लर्निंग” कहते हैं। आज भारतीय समाज में अँग्रेजी भाषा
प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है जिसके कारण माता-पिता हिन्दी व भारतीय भाषाओं की
अवहेलना करते हैं। हिन्दी या भारतीय भाषा में शिक्षा ग्रहण करना निम्न स्तर की बात
मानी जाती है। दरअसल यदि आप अँग्रेजी नहीं जानने के कारण अशिक्षित माने जा रहे हैं
तो आपके पास कोई दूसरा विकल्प शेष नहीं रह जाता है।
भारत
के अलावा दुनिया भर में इस बात को स्वीकार किया गया है कि यदि विद्यार्थी अपनी मातृभाषा (हिन्दी व विभिन्न भारतीय भाषा) में अध्ययन करता है तो
यह उसके शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को उन्नत करता है। यह शिक्षक
की ज़िम्मेदारी है कि वह विद्यार्थी की मातृभाषा को प्रोत्साहित
करे। भारत के सरकारी विद्यालयों में एक विद्यार्थी मूलत: तीन भाषाओं को सीखता है, हिन्दी, भारतीय भाषा और अँग्रेजी। अँग्रेजी माध्यम के
विद्यालयों की स्थिति अलग है, यहाँ विद्यार्थी को शुरू से ही प्रथम भाषा के रूप में अँग्रेज़ी सिखाई जाती है तथा हिन्दी
या भारतीय भाषाओं को द्वितीय एवं तृतीय भाषा के रूप में स्थान
दिया जाता है। आज भूमंडलीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण अँग्रेजी के साथ-साथ किसी अन्य विदेशी भाषा को भी पढ़ाने का प्रचलन बढ़ गया है। ऐसी परिस्थिति
में हिन्दी या भारतीय भाषाओं का महत्त्व घटता जा रहा है। भारत के कई शहरों के निजी
विद्यालयों में विद्यार्थियों को तृतीय
भाषा के विकल्प के रूप में जर्मनी, फ्रेंच, स्पेनिश आदि विदेशी भाषाएँ मुहैया करवाई जा रही हैं। कोई भी नई भाषा सीखना
बुरा नहीं होता और वैसे भी हम भारतीय भाषाओं के आधार पर बहुत समृद्ध हैं। एक औसत
भारतीय कम-से-कम तीन भाषाओं में अच्छी तरह से पढ़, लिख और समझ
सकता है।
यह
तर्क बेहद मज़बूती के साथ दिया जाता है कि विज्ञान और तकनीक की भाषा अँग्रेजी ही है
और आर्थिक वैश्वीकरण के इस युग में अँग्रेजी भाषा का महत्त्व स्वीकार करने में
किसी परहेज की जरूरत नहीं है। बनिस्पत इसके कि दुनिया के गिने-चुने देश प्रशासन, शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, स्वास्थ्य-शिक्षा, व्यावसायिक गतिविधियाँ चलाने के
लिए अँग्रेजी भाषा का इस्तेमाल करते हैं और वहीं दूसरी ओर चीन, जापान, जर्मनी, थाईलैंड, फ्रांस, तुर्की, ईरान आदि
देशों में कोई भी नागरिक बिना अँग्रेजी भाषा जाने डॉक्टर,
वकील, इंजीनियर, शिक्षक आदि बन सकता है।
परन्तु भारत में योग्य से योग्य व्यक्ति भी बिना अँग्रेजी भाषा के ज्ञान के किसी
भी ऊँचे ओहदे तक नहीं पहुँच सकता है। इसका मुख्य कारण यह है कि देश की राजनीति ने
अँग्रेजी को महत्त्वपूर्ण बना दिया है ताकि प्रशासन और सत्ता की भाषा आम जनता से
दूरी बनाए रखे और अपने अभिजात्य संस्कृति की रक्षा कर सके। भारत में अँग्रेजी
जानने वालों की संख्या बमुश्किल से पाँच प्रतिशत के आसपास होगी फिर भी हिन्दी और
अन्य भारतीय भाषाओं पर अँग्रेजी के इस दबदबे का कारण हमारी गुलाम मानसिकता और भाषा
के नाम पर संकीर्ण होने का भाव प्रमुख है।
महात्मा
गाँधी ने कहा था – ’अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिए ऐसी भाषा की आवश्यकता है
जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता-समझता है।’
यह
यथार्थ है कि वही भाषा जीवित रहेगी जो
रोज़गार और बाज़ार की भाषा बनेगी किन्तु एक दूसरा पक्ष भी है जो यह कहता है कि किसी
भी भाषा के जीवित रहने की पहली शर्त है कि उस भाषा-संस्कृति को मानने वाले जन-समूह
की चेतना में अपनी भाषा के प्रति गहरा लगाव और आत्मीय भाव हो और उसे बोलने में सहज
गौरव की अनुभूति हो।
-सौमित्र आनंद
(शिक्षक)
(शिक्षक)