शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

मेरी बात


मेरे सभी विद्‌यार्थियों को नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ


हिन्दी के विख्यात कहानीकार निर्मल वर्मा ने लिखा है - "यह अजीब बात है, जब तुम दो अलग-अलग दुखों के लिए रोने लगते हो और पता नहीं चलता, कौन-से आँसू कौन-से दुख के हैं..." इस उद्‌धरण को लिखने का मेरा उद्‌देश्य बेहद स्पष्ट है कि आज की इस भागती-दौड़ती ज़िन्दगी में मानवीय मूल्यों का विघटन इतनी तेजी के साथ हो रहा है कि एक दुखद घटना को महसूस करने से पहले दूसरी दुखद घटना बहुत तेजी के साथ आपके जीवन में या आसपास घटित होती जा रही है। आज की दुनिया में सूचनाएँ जितनी तेजी के साथ भ्रमण करती हैं शायद उतनी गति से मानवीय भावों का सम्प्रेषण नहीं हो पा रहा है। हम किसी दुखद घटना के घटने के बाद उसे जल्दी भूल जाते हैं क्योंकि दौड़ती हुई दुनिया के साथ दौड़ते रहना आज की अनिवार्यता है।

आज का विद्‌यार्थी जिस दुनिया में जी रहा है क्या वहाँ उसके लिए पर्याप्त संवेदनाएँ बची हुई हैं या आज के विद्‌यार्थियों को मशीन में तब्दील करने की होड़ में हम यह भूलते जा रहे हैं कि समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित जिस समाज की परिकल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी और जिसकी स्थापना करने का संकल्प हमने लिया था क्या वह स्वप्न बिखरता जा रहा है?

आज वाकई बिखरते हुए स्वप्नों को चुनने और चुनकर जोड़ने का समय आ गया है -

"बहुत जरूरी है

अपने सपनों का पीछा करना

और पीछा करते - करते

आगे को बढ़ते रहना

बहुत जरूरी है..."

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