शनिवार, 3 दिसंबर 2016

मैं, गाँधी और चाँद चाचा

यह संस्मरण उन दिनों की है जब मैं कक्षा छह या सात में पढ़ता था और महात्मा गाँधी को पाठ्य-पुस्तक से इतर इतिहास की पुस्तकों से जानने की कोशिश में लगा हुआ था...





भारत की संस्कृति गंगा-जमुनी तहज़ीब की संस्कृति है जहाँ हिन्दू और मुसलमान एक साथ अपने एहसास के साथ जीते हैं। 1947 में जब देश का बँटवारा हुआ तो धर्म को आधार बनाकर एक नए मुल्क का जन्म हुआ लेकिन हिन्दुस्तान ने अपने धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बरकरार रखा और उसे अपने संविधान का अमिट हिस्सा बना लिया। आज हमारे देश में लगभग हर धर्म के लोग बेखौफ़ अपनी ज़िन्दगी जीते हैं। हिन्दुस्तान को धर्मनिरपेक्ष बनाने में उस बूढ़े महात्मा का योगदान कम करके बिल्कुल नहीं देखा जा सकता; जिसने 15 अगस्त, 1947 के दिन आज़ादी का ज़श्न दिल्ली में नहीं मनाया; जिसके लिए उसने इतनी लंबी लड़ाई लड़ी, बल्कि वह दिल्ली से सैकड़ों मील दूर कोलकाता और फिर नोआखाली में मज़हबी दंगों में हैवान बन चुके इनसान को इनसानियत की याद दिला रहा था। दिल्ली से जाते हुए उस महात्मा ने कहा था -‘‘मेरी अहिंसा लूले-लंगड़े की असहाय अहिंसा नहीं है। मेरी जीवंत अहिंसा की यह अग्नि-परीक्षा है। अगर असफल  हुआ तो मर जाऊँगा, लेकिन वापस नहीं लौटूँगा।’’
चिर-परिचित अंदाज़ में उसने एक बार फिर उसी शस्त्र का प्रयोग किया जिसके सहारे उसने ब्रिटिश हुक्मरानों से देश को आज़ाद कराने का स्वप्न देखा, जिया और फिर प्राप्त भी किया था सत्याग्रह और अहिंसा।
भारत के पहले गवर्नर जनरल के रूप में कार्य करते हुए माउंटबेटन ने भारत-पाकिस्तान बँटवारे के दौरान हुए व्यापक जनसंहार का उल्लेख करते हुए कहा था कि जब पूरा पंजाब दंगे की आग में झुलस रहा था और वहाँ हज़ारों की संख्या में मौजूद सिपाही स्थिति पर नियंत्रण नहीं कर पा रहे थे तब सत्याग्रह और अहिंसा का एक बूढ़ा सिपाही अकेले ही पूरे बंगाल में नंगे पैर घूमता हुआ दंगों की आग को बुझा रहा था।
जब मैं कक्षा छह में था तब महात्मा गाँधी को जानने की इच्छा को रोक न सका और मैंने महात्मा को पढ़ना शुरू किया। मुझे गाँधीजी का व्यक्तित्व बेहद प्रभावित करने लगा। गाँधी को जानने की प्रक्रिया जो उस दौर में शुरू हुई, वह आज तक बनी हुई है। उसी दौर में जब गाँधी को जान रहा था तब देश में राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का विवाद अपने उन्माद पर था और एकबार फिर कुछ इनसान हैवान बनने की तैयारी कर चुके थे। देश में मज़हबी उन्माद का दौर शुरू हो चुका था जिसे मैं गाँधी को पढ़ने के क्रम में धीरे-धीरे जानने की कोशिश कर रहा था।
एक दिन विद्‌यालय में जल्दी छुट्‌टी कर दी गई और हमें कहा गया कि जितनी जल्दी हो सके हम अपने घर पहुँच जाएँ। मैं कुछ समझ नहीं पाया कि आखिर ऐसा क्यों हुआ लेकिन फिर भी अपना बस्ता लेकर घर की ओर चल पड़ा। रास्ते रोज़ाना की तरह नहीं दिख रहे थे। सड़कों पर एक खामोशी सी पसरी हुई थी। अक्सर सुबह के ग्यारह बजे सड़कों पर भीड़भाड़ रहती है लेकिन आज का परिदृश्य बिल्कुल बदला हुआ था। मुझे विद्‌यालय से घर जाने के लिए बस पकड़नी होती है लेकिन आज सड़कों पर बसें भी नहीं दौड़ रही थीं। तकरीबन पैंतालीस मिनट तक चलने के बाद मैं अपने मोहल्ले के करीब पहुँचा, मेरा घर हावड़ा के घुसुड़ी बाज़ार के पास स्थित है। वहाँ भी सन्नाटा पसरा हुआ था। कुछ गिने-चुने लोग अपनी खुली दुकानें बंद करने की हड़बड़ी में थे। मेरे लिए शहर का यह रूप नया था क्योंकि पहली बार मैंने शहर की खामोशी को महसूस किया था। मैं घर से अभी भी पन्द्रह मिनट की पैदल दूरी पर था कि अचानक मेरे पड़ोस में रहने वाले चाँद मोहम्मद दिखे, जिन्हें मैं चाँद चाचा कहता था। उन्होंने मुझे देखते ही कहा – “आज स्कूल क्यों गए थे?” मैं उनके इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था। इससे पहले कि मैं कुछ कहता, उन्होंने मुझे गोद में उठा लिया और दौड़ने लगे। मैं उनके इस व्यवहार से सकते में था लेकिन उन्होंने मुझे कसकर पकड़ा हुआ था कि मैं उनकी गोद से छूट न जाऊँ। वे तकरीबन दस मिनट तक लगातार दौड़ते रहे। उनकी साँसें फूल रही थीं और धड़कन बहुत तेज़ थी। घर के दरवाज़े पर पहुँचकर उन्होंने डोर बेल बजाई और जैसे ही माँ ने दरवाज़ा खोला, उन्होंने मुझे घर के अंदर धकेलते हुए माँ से कहा – “भाभी दरवाज़ा बंद कर लो...कोई खटखटाए तो पूछकर खोलना...शहर की हालत खराब है।”......शहर की हालत खराब है...1947 में वह बूढ़ा महात्मा भी खराब हो रहे शहर की हालत को ठीक करने की ही तो कोशिश कर रहा था...उस दिन मैं गाँधी को थोड़ा-थोड़ा समझने लगा था...
-सौमित्र आनंद

मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

शैक्षणिक-सत्र 2016-2017


मैं अपने सभी विद्‌यार्थियों के नए शैक्षणिक-सत्र 2016-17 की कामयाबी के लिए, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी के प्रसिद्‌ध कवि केदारनाथ सिंह की एक कविता - "हाथ"  का ज़िक्र करना चाहूँगा। यह कविता मेरी पसंदीदा कविताओं में से एक है क्योंकि जम रही मानवीय संवेदनाओं के इस दौर में इनसानी रिश्तों की गर्माहट कम होती जा रही है और इनसान के बर्फ़ बनने की प्रक्रिया ने ज़ोर पकड़ लिया है। इन कठिन परिस्थितियों में यह बहुत जरूरी है कि हम एक-दूसरे का हाथ थामे और इस एहसास को बनाए रखे कि हम साथ- साथ हैं, हम पास-पास हैं...
 
"हाथ"

उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।



 

बुधवार, 20 जनवरी 2016

मेरी बात

हिन्दी की प्रसिद्‌ध लेखिका हैं शिवानी, उनकी एक कहानी आई०एस०सी० हिन्दी के नए पाठ्यक्रम में शामिल की गई है - सती। जिसमें एक स्त्री है मदालसा जो मूलत: एक ठग है और ट्रेन की एक बोगी में यात्रा कर रही तीन महिलाओं को अपने मृत पति की चिता पर बैठकर सती होने की खानदानी परम्परा की  झूठी कहानी सुनाकर भावुक कर देती है और नशीला खाना खिलाकर ठग लेती है जिसमें लेखिका भी एक किरदार के रूप में मौजूद है। कहानी की कथावस्तु का विस्तार लगभग इतना ही है और कक्षा में पढ़ाते वक्त ज़्यादा समय भी नहीं लगता। मैंने भी कहानी अपनी कक्षा में सुनाई और विद्‌यार्थियों से प्रतिक्रिया माँगी। पूरी कक्षा दो हिस्सों में बँट गई और लड़कों ने कहा कि स्त्रियाँ ज़्यादा भावुक होती हैं इसलिए सहजता से  भावनात्मक मूर्ख बन जाती हैं। लड़कियों ने कहा कि हमें ज़्यादा भावुक नहीं होना चाहिए बल्कि हममें व्यावहारिकता की मात्रा ज़्यादा होनी चाहिए। पर मैं अपने विद्‌यार्थियों से सहमत नहीं हो पाया। मैंने उनसे पूछा कि भावुकता इनसान का गुण है या दुर्गुण? छात्रों ने सधा हुआ सा जवाब दिया कि यदि भावुकता निश्चित सीमा में है तो गुण अन्यथा दुर्गुण।
मैंने एकबार फिर अपनी असहमति ज़ाहिर की पर इस बार मुझे कोई जवाब नहीं मिला। तब मैंने पूरी कक्षा को हैदराबाद विश्वविद्‌यालय के छात्र रोहित वेमुला की वह चिट्‌ठी पढ़कर सुनाई जिसे उसने आत्महत्या करने से पहले लिखा था जिसका अनुवाद सोशल मिडिया पर भरत तिवारी ने किया है -
 
गुड मॉर्निंग,
जब आप यह पत्र पढ़ रहे होंगे तब मैं यहाँ नहीं होऊँगा। मुझसे नाराज़ नहीं होना। मुझे मालूम है कि आप में से कुछ लोग सच में मेरी परवाह करते थे, मुझे प्यार करते थे और बहुत अच्छा व्यवहार करते थे। मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। मुझे तो हमेशा ख़ुद से ही दिक्कत होती थी। मुझे अपनी आत्मा और शरीर के बीच बढ़ती दूरी महसूस हो रही है। और मैं एक क्रूर-इन्सान (मॉन्स्टर) बन गया हूँ। मैं हमेशा से ही एक लेखक बनना चाहता था। कार्ल सगन की तरह विज्ञान का एक लेखक। और अंत में यही एक पत्र है – जो मुझे लिखने को मिला।
मैं विज्ञान, सितारों और प्रकृति से प्यार करता था और साथ ही मैं इंसानों से भी प्यार करता था - यह जानने के बावजूद कि इंसान अब प्रकृति से अलग हो गया है। हमारी भावनाएँ अब हमारी नहीं रहीं। हमारा प्यार कृत्रिम हो गया। हमारे विश्वास, दिखावा। कृत्रिम-कला, हमारी असलियत की पहचान। बगैर आहत हुए प्यार करना बहुत मुश्किल हो गया है।
इंसान की कीमत बस उसकी फौरी-पहचान और निकटतम संभावना बन के रह गयी है। एक वोट। एक गिनती। एक चीज़। इंसान को एक दिमाग की तरह देखा ही नहीं गया। सितारों के कणों का एक शानदार सृजन। पढाई में, गलियों में, राजनीति में, मरने में, जिंदा रहने में, हर जगह।
मैं ऐसा ख़त पहली दफ़ा लिख रहा हूँ। पहली बार एक अंतिम चिट्‌ठी। अगर यह बेतुका हो तो मुझे माफ कर देना। हो सकता है दुनिया को समझने में मैं शुरू से ही गलत रहा होऊँ। प्यार, पीड़ा, ज़िन्दगी, मौत को समझने में गलत रहा होऊँ। कोई जल्दी भी तो नहीं थी। लेकिन मैं हमेशा जल्दी में रहा। जीवन शुरू करने को बेताब। इस सब के बीच कुछ लोगों के लिए जीवन ही अभिशाप है। मेरा जन्म एक बड़ी दुर्घटना है। मैं बचपन के अकेलेपन से कभी बाहर नहीं आ सका। अतीत का वह उपेक्षित बच्चा।
मुझे इस वक़्त कोई आघात नहीं है। मैं दुखी नहीं हूँ। मैं एक शून्य हो गया हूँ। अपने से बेपरवाह। यह दयनीय है। और इसीलिए मैं यह कर रहा हूँ।
मेरे जाने के बाद लोग मुझे कायर कह सकते हैं। या स्वार्थी या बेवकूफ। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कोई मुझे क्या कहता है। मृत्यु के बाद की कहानियों, भूत, या आत्माओं इन सबमे मैं विश्वास नहीं करता। अगर मैं किसी चीज में भरोसा करता हूँ तो - मैं सितारों का सफ़र कर सकता हूँ अपने इस विश्वास में। और दूसरी दुनियाओं को जानूँ।
अगर आप, जो यह पत्र पढ़ रहे है, मेरे लिए कुछ कर सकते हैं, मुझे अपनी सात महीने की फ़ेलोशिप मिलनी है, एक लाख पचहत्तर हज़ार रुपये। कृपया देखिएगा कि यह मेरे परिवार को मिल जाये। मुझे चालीस हज़ार रुपये रामजी को देने हैं। उन्होंने ये पैसे कभी वापस माँगे ही नहीं। लेकिन कृपया उन्हें इन पैसों में से ये वापस दे दीजियेगा।
मेरे अंतिम संस्कार को शांत रहने दीजियेगा। ऐसा सोचियेगा कि मैं बस दिखा और चला गया। मेरे लिए आँसू नहींबहाइएगा। यह बात समझिएगा कि मैं जिंदा रहने से ज्यादा मर कर खुश हूँ।
‘परछाइयों से सितारों तक’
उमा अन्ना, माफ़ कीजियेगा - इस काम के लिए आपका कमरा यूज़ किया।
एएसए [अम्बेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन] परिवार, आप सब को निराश करने के लिए माफ़ी। आपने मुझे बहुत प्यार किया। अच्छे भविष्य के लिए मेरी शुभकामनाएं।
एक आखिरी बार के लिए,
जय भीम
मैं औपचारिकताओं को लिखना भूल गया।
अपने आप को मारने के मेरे इस कृत्य के लिए कोई भी जिम्मेदार नहीं है।
यह करने के लिए किसी ने मुझे उकसाया नहीं है, न अपने कृत्य से, न अपने शब्दों से।
यह मेरा निर्णय है और अकेला मैं ही इसके लिए ज़िम्मेदार हूँ।
मेरे दोस्तों और मेरे दुश्मनों को मेरे जाने के बाद इसके लिए परेशान न कीजियेगा।
 
इस बार मैंने फिर अपने विद्‌यार्थियों से एक प्रश्न पूछा - "क्या रोहित का आत्महत्या करना भावुकता में उठाया हुआ कमज़ोर कदम था?
यकीन मानिए इस बार पूरी कक्षा में देर तक खामोशी पसरी रही और ये खामोशी भावुकता की बिल्कुल नहीं थी...कक्षा के खत्म होने का घंटा बज चुका था और मैं अपनी किताबों को समेटे स्टाफ रूम की ओर चल पड़ा।
ज़हन में एक बात घूम रही थी कि भावुकता इनसान के बहुत सारे अच्छे गुणों में से एक है फिर वह दुर्गुण कैसे बन सकता है या कैसे कोई भावुक होकर ठगा जा सकता है? भावुक होना इनसान की कमज़ोरी कैसे बन सकती है और व्यावहारिकता चालाकी या धूर्तता का पर्याय क्यों मान लिया गया है। क्या हमने एक ऐसे माहौल का निर्माण कर लिया है जहाँ इनसान का भावुक होना, दुखी होना या रोना उसकी कमज़ोरी मान ली गई है...

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

मेरी बात


मेरे सभी विद्‌यार्थियों को नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ


हिन्दी के विख्यात कहानीकार निर्मल वर्मा ने लिखा है - "यह अजीब बात है, जब तुम दो अलग-अलग दुखों के लिए रोने लगते हो और पता नहीं चलता, कौन-से आँसू कौन-से दुख के हैं..." इस उद्‌धरण को लिखने का मेरा उद्‌देश्य बेहद स्पष्ट है कि आज की इस भागती-दौड़ती ज़िन्दगी में मानवीय मूल्यों का विघटन इतनी तेजी के साथ हो रहा है कि एक दुखद घटना को महसूस करने से पहले दूसरी दुखद घटना बहुत तेजी के साथ आपके जीवन में या आसपास घटित होती जा रही है। आज की दुनिया में सूचनाएँ जितनी तेजी के साथ भ्रमण करती हैं शायद उतनी गति से मानवीय भावों का सम्प्रेषण नहीं हो पा रहा है। हम किसी दुखद घटना के घटने के बाद उसे जल्दी भूल जाते हैं क्योंकि दौड़ती हुई दुनिया के साथ दौड़ते रहना आज की अनिवार्यता है।

आज का विद्‌यार्थी जिस दुनिया में जी रहा है क्या वहाँ उसके लिए पर्याप्त संवेदनाएँ बची हुई हैं या आज के विद्‌यार्थियों को मशीन में तब्दील करने की होड़ में हम यह भूलते जा रहे हैं कि समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित जिस समाज की परिकल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी और जिसकी स्थापना करने का संकल्प हमने लिया था क्या वह स्वप्न बिखरता जा रहा है?

आज वाकई बिखरते हुए स्वप्नों को चुनने और चुनकर जोड़ने का समय आ गया है -

"बहुत जरूरी है

अपने सपनों का पीछा करना

और पीछा करते - करते

आगे को बढ़ते रहना

बहुत जरूरी है..."

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