काव्य मंजरी

कबीरदास


(जन्म: 1398 - निधन: 1518)
 
कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। ये सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर का अर्थ अरबी भाषा में महान होता है। कबीरदास भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। कबीरपंथी, एक धार्मिक समुदाय जो कबीर के सिद्‌धांतों और शिक्षाओं को अपने जीवन शैली का आधार मानते हैं।
कबीरदास का लालन-पोषण एक जुलाहा परिवार में हुआ। इन्होंने गुरु रामानंद से दीक्षा ली। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने एक कुशल समाज-सुधारक की तरह तत्कालीन समाज में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों, मूर्ति-पूजा, कर्मकांड तथा बाहरी आडंबरों का जोरदार तरीके से विरोध किया। कबीरदास ने हिन्दू-मुसलामन ऐक्य का खुला समर्थन किया। कबीर के दोहों में गुरु-भक्ति, सत्संग, निर्गुण भक्ति तथा जीवन की व्यावहारिक आदि विषयों पर ज़ोर दिया गया है।
कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्‌ध है। इसके तीन भाग हैं-  साखी, सबद और रमैनी।
कबीर की भाषा में भोजपुरी, अवधी, ब्रज, राजस्थानी, पंजाबी, खड़ी बोली, उर्दू और फ़ारसी के शब्द घुल-मिल  गए हैं। अत: विद्‌वानों ने उनकी भाषा को सधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी कहा है।
साखी

साखी संस्कृत 'साक्षित्‌' (साक्षी) का रूपांतर है। संस्कृत साहित्य में आँखों से प्रत्यक्ष देखने वाले के अर्थ में साक्षी का प्रयोग हुआ है। कालिदास ने कुमारसंभव में इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है।
हिंदी निर्गुण संतों में साखियों का व्यापक प्रचार निस्संदेह कबीर द्वारा हुआ है। गुरुवचन और संसार के व्यावहारिक ज्ञान को देने वाली रचनाएँ साखी के नाम से अभिहित होने लगीं। कबीर ने कहा भी है, साखी आँखी ज्ञान की।
दोहा

दोहा लोक-प्रचलित छन्द है। दोहा दो पंक्तियों का छन्द है।
प्राचीन दोहा के पहले और तीसरे चरण में 13-13 मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे में 11-11 मात्राएँ होती हैं।
दोहा लोक-साहित्य का सबसे सरलतम छन्द है, जिसे साहित्य में यश प्राप्त हो सका। हिन्दी में यह प्राय: सभी प्रमुख कवियों के द्वारा प्रयुक्त हुआ है। सूर, मीरा, तुलसी, जायसी, कबीर, रहीम आदि ने अपने पदों में इसका प्रयोग किया है।

कठिन शब्दार्थ

लोक वे के साथि - लोक एवं वेद की परंपरा में बँधा
दीपक दीया - ज्ञान रूपी दीपक
बरष्या - बरस पड़ा
बनराइ - समस्त विश्व
बासुरि - दिन
सुपिनै - सपने में
रैणि - रात
बिछुड्‌या - बिछुड़ने पर
मूंवा - मरने पर
पाथर - पत्थर
घाटा - घटना (समाप्त होना)
पारस - एक तरह का पत्थर जिसके स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है
आँखड़ियाँ - आँखों में
जीभड़ियाँ - जीभ पर
झाईं - अँधेरा सा
रिसाइ - रुष्ट हो जाना
विसूरणां - दुख, चिंता
फिर्‌या - घूमा
अनूप - अनुपम रूप (परम तत्त्व)
मैं - अहं
हरि - ईश्वर
जोगी - योगी
बिरला - कोई-कोई

साखी
(१)

पीछे लागा जाई था, लोक वेद के साथि।

आगैं थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया साथि॥



 भावार्थ


प्रस्तुत दोहे में कबीर ने गुरु की महत्ता का वर्णन किया है। कबीर कहते हैं कि मैं अज्ञानतावश दुनिया के सामान्य लोगों की भाँति लोक एवं वेद की परम्परा में बँधा हुआ उसका अनुशरण कर रहा था परन्तु मुझे मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो रही थी लेकिन मार्ग में सामने से गुरु मिल गए जिन्होंने  मेरे हाथ में ज्ञान रूपी दीपक दे दिया अर्थात्‌ गुरु ने मुझे वास्तविक ज्ञान








प्रदान किया। जिस प्रकार दीपक की रोशनी में मार्ग का अंधकार समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार गुरु की कृपा से सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है और मनुष्य सामान्य प्राणियों की भाँति अज्ञानतावश इस भव-सागर रूपी संसार में भटकता नहीं है।


(२)


कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरष्या आइ।


अंतरि भीगी आत्मां, हरी भई बनराइ॥

भावार्थ
प्रस्तुत दोहे में कबीर ने गुरु अथवा ईश्वर के प्रेम और अनुग्रह का वर्णन किया है। कबीर कहते हैं कि हम पर ईश्वर अथवा गुरु की अपार कृपा है। वे सदैव हम पर अपने प्रेम एवं अनुग्रह से भरे बादल की वर्षा करते हैं। उनकी
 प्रेम-वर्षा से हमारी अंतरात्मा भीग जाती है और हम आनंदित हो उठते हैं। यह आनंद केवल मानव-मात्र तक ही सीमित नहीं रहता है बल्कि सम्पूर्ण ’वनराइ’ अर्थात्‌ समस्त विश्व में व्याप्त हो जाता है।
(३)
बासुरि सुख, नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं।
कबीर बिछुट्‌या राम सूं, ना सुख धूप न छाँह॥
  भावार्थ
 प्रस्तुत दोहे में कबीर ने ईश्वर से बिछड़े जीवात्मा की पीड़ा को दर्शाया है। कबीर ईश्वर को परमात्मा मानते हैं और संसार के समस्त प्राणी को उस परमात्मा से निकली आत्मा। आत्मा अर्थात्‌ जीव में परमात्मा की ही अंश निहित होता है और आत्मा अपना जीवन-चक्र पूरा करने के पश्चात
परमात्मा में मिलने के लिए व्याकुल रहती है। कबीर कहते हैं कि यदि जीव अपने ईश्वर से बिछड़ जाए तो उसे कहीं भी सुख की प्राप्ति नहीं होती है। जीव को न दिन की रोशनी में चैन पड़ता है और न ही रात्रि की शीतलता में। उसे धूप में सुख मिलता है और न ही छाँव में।
(४)
मूवां पीछे जिनि मिलै, कहै कबीरा राम।
पाथर घाटा लौह सब, पारस कोणें काम॥
भावार्थ
प्रस्तुत दोहे में कबीर ने ईश्वर-दर्शन की अभिलाषा प्रकट की है। कबीर ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु आप के दर्शन की अभिलाषा है। यदि आप मुझे दर्शन देना चाहते हैं तो मेरे जीवन काल में ही दीजिए न कि मृत्यु के बाद। कबीर कहते हैं कि जिस प्रकार पारस पत्थर की तलाश में पत्थरों
 से रगड़ते-रगड़ते जब सारा लोहा समाप्त हो जाएगा तब पारस पत्थर के मिलने का क्या महत्त्व रह जाएगा ? क्योंकि तब पारस पत्थर से सोना बनाने के लिए लोहा ही नहीं बचेगा, उसी प्रकार मनुष्य अपने जीवन काल में ईश्वर-दर्शन प्राप्त कर धन्य हो जाएगा।
(५)
अंखड़ियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़िया छाला पड्‌या, राम पुकारि-पुकारि॥
 भावार्थ
प्रस्तुत दोहे में कबीर ने ईश्वर के वियोग में तड़प रहे जीव की अत्यंत व्याकुल दशा का वर्णन किया है। कबीर कहते हैं कि अपने प्रियतम रूपी ईश्वर की प्रतीक्षा करते-करते आँखों में अँधेरा सा छाने लगा है। अपने
 प्रियतम को बार-बार पुकारने के कारण जिह्‌वा पर छाले पड़ गए हैं परन्तु अभी तक प्रियतम से मिलन का संयोग नहीं हो पाया है।
(६)
जो रोऊँ तो बल घटै, हँसौं तो राम रिसाइ।
मनहि मांहि बिसूरणां, ज्यूँ घुंण काठहि खाइ॥
 भावार्थ
 प्रस्तुत दोहे में कबीर ने मानव मन में निहित दुख और पीड़ा की आवश्यकता पर जोर दिया है। कबीर कहते हैं कि हमें ईश्वर की दया और प्रेम पर अटूट विश्वास करना चाहिए। यदि विपत्ति और कठिनाई के
 समय हमारा विश्वास ईश्वर से उठ जाए और हम रोने और हँसने लगे तो हमारा बल घटने लगेगा और ईश्वर हमसे रुष्ट हो जाएँगे। इसलिए हृदय में निहित दुख हमारे विकार को उसी प्रकार साफ कर देता है जिस प्रकार दीमक (घुन) लकड़ी को खोखला कर देता है। 
 (७)
परवति-परवति मैं फिर्‌या, नैन गँवाये रोइ।
सो बूटी पाँऊ नहीं, जातैं जीवनि होइ॥
भावार्थ
प्रस्तुत दोहे में कबीर ने अपने प्रियतम (राम) के विरह में जल रहे मन का वर्णन किया है। कबीर कहते हैं कि मैं अपने प्रिय राम के वियोग की अग्नि में जल रहा हूँ और उन्हें पर्वत-पर्वत घूमकर खोज रहा हूँ। मैं अपने प्रियतम
 को याद कर-करके रो रहा हूँ जिससे मेरे देखने की क्षमता भी समाप्त हो चुकी है पर मुझे वह जड़ी-बूटी कहीं नहीं मिली, जिससे जीवन की प्राप्ति संभव हो। एक पौराणिक कथा के अनुसार जब लक्ष्मण को शक्ति अस्त्र लगा तब राम की कृपा से हनुमान को संजीवनी बूटी की प्राप्ति हुई थी जिससे लक्ष्मण की रक्षा हो पाई।
(८)
आया था संसार मैं, देषण कौं बहु रूप।
कहै कबीरा संत हौ, पड़ि गयां नजरि अनूप॥
 भावार्थ 
प्रस्तुत दोहे में कबीर ने गुरु की कृपा का वर्णन किया है। कबीर के अनुसार इनसान अपनी इंद्रियों के वश में होता है और वह सांसारिक मोह-माया की जाल में फँसा रहता है। कबीर कहते हैं कि मैं इस मोह-माया रूपी
 संसार में वासनाओं में जकड़ा हुआ इसके अनेक रूप देखने आया था, परन्तु हे संतो! मुझे यहाँ गुरु की कृपा से अनुपम रूप (परम तत्त्व)  अर्थात्‌ निर्गुण ब्रह्‌म के  के दर्शन हो गए।
(९)
जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहिं॥
भावार्थ 
प्रस्तुत दोहे में कबीर ने अहंकार को ईश्वर प्राप्ति में बाधक माना है। यदि इनसान के स्वभाव में अहंकार का वास है तो वहाँ ईश्वर का आगमन असंभव है तथा अज्ञान का अंधकार समाप्त नहीं हो सकता। कबीर कहते
 हैं कि जब तक मुझमें अहं की भावना थी, तब तक भगवान की वास्तविकता का ज्ञान नहीं था। जब मुझे ईश्वर की पूर्ण वास्तविकता तथा जीव-ब्रह्‌म की एकता का ज्ञान हुआ  तब हरि का आगमन हो गया और मेरा अहं समाप्त हो गया तथा ज्ञान की परम रोशनी में अज्ञानता का घोर अँधेरा भी दूर हो गया।
(१०)
तन कौं जोगी सब करैं, मन कौं विरला कोइ।
सब विधि सहजै पाइए, जे मन जोगी होइ॥
भावार्थ 
प्रस्तुत दोहे में कबीर ने स्पष्ट किया है कि सहज साधना से ही सब सिद्‌धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। कबीर के अनुसार जीवन में दिखावे से क्षणिक सुख की प्राप्ति तो हो सकती है किन्तु वास्तविक संतुष्टि सहज
रहकर ही पाया जा सकता है। कबीर कहते हैं कि योगियों जैसी वेशभूषा तो कोई भी धारण करके योगी बनने की स्वांग कर सकता है, परन्तु सच्चे वैराग्य के द्‌वारा मन को कोई विरला ही योगी बना सकता है जिसका मन सच्चे योग को धारण कर लेता है, उसे सब (आठों) प्रकार की सिद्‌धियों की सहज प्राप्ति हो सकती है।
 आठ सिद्‌धियाँ निम्नलिखित हैं -

१ अणिमा :- अपने को सूक्ष्म बना लेने की क्षमता
२ महिमा :- अपने को बड़ा बना लेने की क्षमता
३ लघिमा :- अपने को हल्का बना लेने की क्षमता
४ ईशित्व :- हर सत्ता को जान लेना और उस पर नियंत्रण करना
५ वैशित्व:- जीवन और मृत्यु पर नियंत्रण पा लेने की क्षमता
६ प्रकाम्य:- कोई भी रूप धारण कर लेने की क्षमता
७ प्राप्ति :- कुछ भी निर्माण कर लेने की क्षमता
८ अंतर्मितत्व:- किसी भी वस्तु या जीव के अंतर्तत्व तथा
उसके स्वाभाव को जान लेने की क्षमता

विशेष: सिद्धियां क्या हैं व इनसे क्या हो सकता है इन सभी का उल्लेख मार्कंडेय पुराण तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण में प्राप्त होता है जो इस प्रकार है:-
अणिमा लघिमा गरिमा प्राप्ति: प्राकाम्यंमहिमा तथा। ईशित्वं च वशित्वंच सर्वकामावशायिता:।।

यह आठ मुख्य सिद्धियाँ इस प्रकार हैं:-
अणिमा सिद्धि
अपने को सूक्ष्म बना लेने की क्षमता ही अणिमा है. यह सिद्धि यह वह सिद्धि है, जिससे युक्त हो कर व्यक्ति सूक्ष्म रूप धर कर एक प्रकार से दूसरों के लिए अदृश्य हो जाता है. इसके द्वारा आकार में लघु होकर एक अणु रुप में परिवर्तित हो सकता है. अणु एवं परमाणुओं की शक्ति से सम्पन्न हो साधक वीर व बलवान हो जाता है. अणिमा की सिद्धि से सम्पन्न योगी अपनी शक्ति द्वारा अपार बल पाता है.
महिमा सिद्धि
अपने को बड़ा एवं विशाल बना लेने की क्षमता को महिमा कहा जाता है. यह आकार को विस्तार देती है विशालकाय स्वरुप को जन्म देने में सहायक है. इस सिद्धि से सम्पन्न होकर साधक प्रकृति को विस्तारित करने में सक्षम होता है. जिस प्रकार केवल ईश्वर ही अपनी इसी सिद्धि से ब्रह्माण्ड का विस्तार करते हैं उसी प्रकार साधक भी इसे पाकर उन्हें जैसी शक्ति भी पाता है.
गरिमा सिद्धि
इस सिद्धि से मनुष्य अपने शरीर को जितना चाहे, उतना भारी बना सकता है. यह सिद्धि साधक को अनुभव कराती है कि उसका वजन या भार उसके अनुसार बहुत अधिक बढ़ सकता है जिसके द्वारा वह किसी के हटाए या हिलाए जाने पर भी नहीं हिल सकता .
लघिमा सिद्धि
स्वयं को हल्का बना लेने की क्षमता ही लघिमा सिद्धि होती है. लघिमा सिद्धि में साधक स्वयं को अत्यंत हल्का अनुभव करता है. इस दिव्य महासिद्धि के प्रभाव से योगी सुदूर अनन्त तक फैले हुए ब्रह्माण्ड के किसी भी पदार्थ को अपने पास बुलाकर उसको लघु करके अपने हिसाब से उसमें परिवर्तन कर सकता है.
प्राप्ति सिद्धि
कुछ भी निर्माण कर लेने की क्षमता इस सिद्धि के बल पर जो कुछ भी पाना चाहें उसे प्राप्त किया जा सकता है. इस सिद्धि को प्राप्त करके साधक जिस भी किसी वस्तु की इच्छा करता है, वह असंभव होने पर भी उसे प्राप्त हो जाती है. जैसे रेगिस्तान में प्यासे को पानी प्राप्त हो सकता है या अमृत की चाह को भी पूरा कर पाने में वह सक्षम हो जाता है केवल इसी सिद्धि द्वारा ही वह असंभव को भी संभव कर सकता है.
प्राकाम्य सिद्धि
कोई भी रूप धारण कर लेने की क्षमता प्राकाम्य सिद्धि की प्राप्ति है. इसके सिद्ध हो जाने पर मन के विचार आपके अनुरुप परिवर्तित होने लगते हैं. इस सिद्धि में साधक अत्यंत शक्तिशाली शक्ति का अनुभव करता है. इस सिद्धि को पाने के बाद मनुष्य जिस वस्तु कि इच्छा करता है उसे पाने में कामयाब रहता है. व्यक्ति चाहे तो आसमान में उड़ सकता है और यदि चाहे तो पानी पर चल सकता है.
ईशिता सिद्धि
हर सत्ता को जान लेना और उस पर नियंत्रण करना ही इस सिद्धि का अर्थ है. इस सिद्धि को प्राप्त करके साधक समस्त प्रभुत्व और अधिकार प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है. सिद्धि प्राप्त होने पर अपने आदेश के अनुसार किसी पर भी अधिकार जमा सकता है. वह चाहे राज्यों से लेकर साम्राज्य ही क्यों न हो.
इस सिद्धि को पाने पर साधक ईश रुप में परिवर्तित हो जाता है.
वशिता सिद्धि
जीवन और मृत्यु पर नियंत्रण पा लेने की क्षमता को वशिता या वशिकरण कहा जाता है. इस सिद्धि के द्वारा जड़, चेतन, जीव-जन्तु, पदार्थ- प्रकृति, सभी को स्वयं के वश में किया जा सकता है. इस सिद्धि से संपन्न होने पर किसी भी प्राणी को अपने वश में किया जा सकता है।
सियारामशरण गुप्त

(जन्म:1895 - निधन:1963)
  
सियारामशरण गुप्त का जन्म सेठ रामचरण कनकने के परिवार में श्री मैथिलीशरण गुप्त के अनुज के रूप में चिरगाँव, झांसी में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने घर में ही गुजराती, अंग्रेजी और उर्दू भाषा सीखी। सन् 1929 ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और कस्तूरबा गाँधी के सम्पर्क में आये। कुछ समय वर्धा आश्रम में भी रहे। उनकी पत्नी तथा पुत्रों का निधन असमय ही हो गया था अतः वे दु:ख वेदना और करुणा के कवि बन गये। 1914 ई. में उन्होंने अपनी पहली रचना मौर्य विजय लिखी।
सियारामशरण गुप्त गांधीवाद की परदु:खकातरता, राष्ट्रप्रेम, विश्वप्रेम, विश्व शांति, सत्य और अहिंसा से आजीवन प्रभावित रहे। इनके साहित्य में शोषण, अत्याचार और कुरीतियों के विरुद्‌ध संघर्ष का स्वर विद्‌यमान है।
गुप्त जी की भाषा सहज तथा व्यावहारिक है। 1941 ई. में इन्हें नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी द्‌वारा "सुधाकर पदक" प्रदान किया गया।

प्रमुख रचनाएँ

खण्ड काव्य - अनाथ, आर्द्रा, विषाद, दूर्वा दल, बापू, सुनन्दा और गोपिका।
कहानी संग्रह - मानुषी
नाटक - पुण्य पर्व
अनुवाद- गीता सम्वाद
कविता संग्रह- अनुरुपा तथा अमृत पुत्र
काव्यग्रन्थ- दैनिकी नकुल, नोआखली में, जय हिन्द, पाथेय, मृण्मयी तथा आत्मोसर्ग।
उपन्यास- अन्तिम आकांक्षा तथा नारी और गोद।
निबन्ध संग्रह- झूठ-सच।

 कविता
एक फूल की चाह
"एक फूल की चाह" कविता में कवि सियारामशरण गुप्त जी ने भारतीय समाज की एक गंभीर समस्या छुआछूत का अत्यंत मार्मिक ढंग से चित्रण किया है।
भारत अध्यात्मवादी देश है किन्तु हम मनुष्य को मनुष्य का दर्ज़ा देते हुए भी झिझकते हैं। आबादी के एक बड़े हिस्से को अछूत कहकर उसका तिरस्कार और शोषण करते हैं और विश्वास करते हैं कि उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा! उनके मन्दिरों में प्रवेश से देवगण नाराज हो उठेंगे! कुएँ से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआँ अपवित्र हो जाएगा! आदि-आदि।
एक बार भगत सिंह ने कहा था -"कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है। हमारी रसोई में निःसंग फिरता है, लेकिन एक इन्सान का हमसे स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है।... सबको प्यार करनेवाले भगवान की पूजा करने के लिए मन्दिर बना है लेकिन वहाँ अछूत जा घुसे तो वह मन्दिर अपवित्र हो जाता है! भगवान रुष्ट हो जाता है!..."
प्रस्तुत कविता में एक दलित पिता की पीड़ा को उभारा गया है जो अपनी बीमार बच्ची की इच्छा को पूरा करने के लिए, देवी माँ के मंदिर से एक फूल लाने जाता है, परन्तु हमारी सामाजिक बनावट में दलितों का मंदिर में प्रवेश निषेध है। अत: लाचार पिता को मंदिर में प्रवेश करने और पूजा का फूल लेने की धृष्टता के लिए खूब पीटा जाता है। पिता अपनी मृत प्राय बेटी की अंतिम इच्छा को भी पूरी नहीं कर पाता है।













कठिन शब्दार्थ

निहार - देखकर
ताप तप्त - ज्वर से गरम
विह्‌वल - बेचैन
कंठ - गला
क्षीण - कमज़ोर, दुर्बल
शिथिल - थका माँदा, सुस्त
प्रभात सजग - हलचल से भरी सुबह
अलस दुपहरी - आलस्य से भरी दोपहर
ग्रसने - निगलने
तिमिर - अंधकार
महाकाश - बड़ा आकाश
सुस्थिर - एक जगह स्थिर होकर
विस्तीर्ण - फैला हुआ
सरसिज - तालाब में होने वाला कमल
विहँसित - हँसना
समुदित - प्रसन्नता के साथ
अच्छादित - छाया हुआ
मुद मय - आनंद के साथ
अंजलि - हथेलियों पर बनाया हुआ गड्‍ढा
सिंहपौर - सिंह-द्‌वार ( मंदिर का मुख्य द्‌वार)
कलुषित - अपवित्र
शुचिता - पवित्रता
सुमित्रानन्दन पंत
(जन्म: 1900 - मृत्य: 1977)
सुमित्रानन्दन पंत हिन्दी के प्रमुख छायावादी कवि हैं जिन्हें प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता है।  पंत को रवींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गाँधी और श्री अरविंद घोष जैसे महान व्यक्तित्व का सानिध्य मिला। 1921 में इन्होंने असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी तथा इनके संघर्षमय जीवन का आरंभ भी हुआ। इन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत और बंगला का स्वाध्याय किया। 1961 में भारत सरकार द्वारा इन्हें पद्‌मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया।

   इनकी कविताओं का मुख्य आकर्षण प्रकृति सौन्दर्य रहा है। मूलत: प्रकृति से प्रेरणा प्राप्त कवि होने के कारण इनके काव्य में प्रकृति के बड़े हृदयग्राही चित्र मिलते हैं। इनकी भाषा अत्यंत सहज तथा मधुरता से परिपूर्ण है।

    प्रमुख रचनाएँ - कला और बूढ़ा चाँद ( साहित्य अकादमी ), चिदम्बरा ( ज्ञानपीठ पुरस्कार ), लोकायतन (सोवियत नेहरू शांति पुरस्कार), वीणा, पल्लव, गुंजन, युगवाणी, ग्राम्या आदि।
यह धरती कितना देती है

मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा!
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्‌टी ने न एक भी पैसा उगला!-
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल-कल्पना के अपलक पाँवडे बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने ग़लत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!

अद्‌र्धशती लहराती निकल गयी है तबसे!
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने,
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई;
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन!
औ' जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये
गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर,
मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की
गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिये मिट्‌टी के नीचे-
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो!
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!
किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में
टहल रहा था- तब सहसा, मैने देखा
उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!

देखा-आँगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं!
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की,
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी-
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे-
डिम्ब तोड़कर निकले चिडियों के बच्चों से!
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया-कुछ दिन पहले
बीज सेम के मैने रोपे थे आँगन में,
और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हें नाटे पैर पटक, बढती जाती है!

तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,
हरे-भरे टँग गये कई मखमली चँदोवे!
बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाड़े की टट्‌टी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को-
मैं अवाक रह गया - वंश कैसे बढ़ता है!
छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटें
झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर
सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से!

ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटी!
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ-
पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती!
लम्बी-लम्बी अँगुलियों - सी नन्हीं-नन्हीं
तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,
झूठ न समझें चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती,
सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल
झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी!
आह इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ों भर खाईं,
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के
जाने-अनजाने सब लोगों में बँटवाईं
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने
जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाईं !-
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ!

यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!
नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्व को,-
बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;
इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है,
इसमें मानव-ममता के दाने बोने हैं,-
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की - जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।
कठिन शब्दार्थ

छुटपन - बचपन
कलदार - टकसाल का बना हुआ सिक्का
बंध्या मिट्‌टी - अनुपजाऊ मिट्‌टी
बाट जोहना - इंतज़ार करना
पाँवड़े बिछाना - गलीचा बिछाकर इंतज़ार करना
अबोध - अनजान
मधु - वसंत
शरद - सर्दी
ऊदी - बैंगनी
भू के अंचल में - भूमि की गोद में
हर्ष विमूढ़ - खुशी में मुग्ध
नवागत - उगते हुए नए पौधे
डिंब - अंडा
निर्निमेष - एकटक
बौने - छोटे
चंदोवे - वितान
लतर - बेल
मावस - अमावस्या (कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि)
प्रसविनी - जन्म देने वाली
वसुधा - धरती
समता - बराबरी
क्षमता - योग्यता
ममता - प्रेम 

तुलसीदास


(जन्म:1497 - निधन:1623)

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में गोस्वामी तुलसीदास का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। तुलसीदास के जन्म और मृत्यु के विषय में   विद्‌वानों में मतभेद है। अधिकांश विद्‌वानों का मानना है कि इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा ज़िले के राजापुर नामक गाँव में सन्‌ 1497 में हुआ था। गुरु नरहरिदास इनके गुरु थे। तुलसीदास ने भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने राम कथा पर आधारित विश्व-प्रसिद्‌ध महाकाव्य " रामचरितमानस" की रचना की। तुलसीदास राम के अनन्य भक्त थे। तुलसीदास ने ब्रज और अवधि दोनों भाषा में समान रूप से लिखा। 
तुलसीदास ने अपनी रचनाओं के द्‌वारा आदर्श समाज की स्थापना पर जोर दिया जिसमें न्याय, धर्म, सहानुभूति, प्रेम और दया जैसे मानवीय गुणों पर विशेष ध्यान दिया है।

प्रमुख रचनाएँ - विनय-पत्रिका,गीतावली, कवितावली, दोहावली, पार्वती मंगल, हनुमान बाहुक, रामलला नहछू, जानकी मंगल, कृष्ण-गीतावली आदि। 

कठिन शब्दार्थ
मंदिर - महल
निहारति - देखती
कंकन - कंगन
यातें - इसके
कागर - पक्षियों के झड़े पंख
कीर - तोता
चीर - वस्त्र
सरीरु - शरीर
लस्यो - शोभित हुआ
नीरु - नीर, पानी
सबै सनमानी - सबका सम्मान करके
औध - अयोध्या
राजिव लोचन - कमल के समान नेत्रों वाले
बताऊ - बटोही, पथिक
विरद - बड़ाई, यश
अधम - नीच
उधारे - उद्‌धार करना, उबारा
तारे - उद्‌धार किया

अन्तर्कथाएँ
जटायु
जटायु एक गिद्‌ध पक्षी थे। जब रावण सीता का हरण करके आकाश मार्ग से लंका की ओर जा रहा था तब सीता की दुख-भरी वाणी सुनकर जटायु ने उन्हें पहचान लिया और उन्हें छुड़ाने के लिए रावण से युद्‌ध करते हुए गंभीर रूप से घायल हो गए। सीता को खोजते हुए राम जब वहाँ पहुँचे तब जटायु ने रावण के संबंध में सूचना देकर राम के चरणों में ही प्राण त्याग दिए।
मारीच
मारीच रावण का मामा था। उसने स्वर्ण मृग का रूप धारण करके राम और सीता के साथ छल किया था ताकि राम उसके पीछे चले जाएँ और पीछे से रावण सीता का हरण कर ले। मारीच राम के हाथों मारा गया और उसे सद्‌गति प्राप्त हुई।


व्याध
व्याध से तात्पर्य शबरी से है जो एक प्राचीन जंगली शबर जाति की स्त्री थी। उसे पूर्वाभास हो गया था कि भगवान राम उसी वन के रास्ते से जाएँगे जहाँ वह रहती थी। जब राम वहाँ पहुँचे तो उसने अपने चखे हुए मीठे बेर खिलाकर उनका आतिथ्य किया। भगवान राम ने उसका आतिथ्य स्वीकार किया तथा उसे परमगति प्रदान की। इस प्रकार उन्होंने व्याध का उद्‌धार किया।




कुछ विद्‌वानों के अनुसार यहाँ व्याध शब्द का प्रयोग कवि वाल्मीकि के लिए किया गया है जिन्होंने "रामायन" की रचना की थी। यह कहा जाता है कि वाल्मीकि राम का उल्टा नाम जपकर ही तर गए थे।

अहिल्या
भगवान इंद्र ने गौतम ऋषि का रूप धारण कर अहिल्या के साथ दुराचार किया जिससे गौतम ऋषि ने अहिल्या को शाप देकर पत्थर का बना दिया। पौराणिक कथा के अनुसार श्रीराम के चरण रज के स्पर्श से वह पुन: स्त्री बन गई तथा उसकी सद्‌गति हुई।




यमलार्जुन
कुबेर के दो पुत्र थे - नलकूबर और मणिग्रीव। एक बार दोनों भाई नदी में जल-क्रीड़ा कर रहे थे और वहाँ नारद मुनि भी पहुँचे। उनदोनों भाइयों ने नारद मुनि का अपमान कर दिया। नारद मुनि ने उन्हें शाप दे दिया जिसके कारण कुबेर पुत्र यमलार्जुन ( आँवले) नामक जुड़वा वृक्ष बनकर गोकुल में पैदा हुए। भगवान कृष्ण ने ऊखल (ओखली) बंधन के समय उनका उद्‌धार किया।



ऊखल बंधन
बचपन में बालक कृष्ण शरारत किया करते थे और माता यशोदा परेशान हो जाया करती थीं। अत: कृष्ण की शरारतों को रोकने के लिए एक दिन माँ यशोदा ने उनके हाथ ऊखल ( ओखली) से बाँध दिए। उस समय ऊखल लकड़ी की बनी हुई, आकार में बड़ी तथा वज़न में भारी होती थी। किन्तु कृष्ण उस ऊखल को घसीट कर ले गए और उसे दो पेड़ों के बीच फँसा कर झटका दिया जिससे कि दोनों पेड़ उखड़ गए और दो सुंदर राजकुमार प्रकट हुए। इस प्रकार दोनों का उद्‌धार हुआ।

कालयवन
कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण जरासंध से युद्‌ध कर रहे थे तब जरासंध का एक साथी असूर कालयवन भी भगवान से युद्‌ध करने आ पहुंचा। कालयवन श्रीकृष्ण के सामने पहुँचकर ललकारने लगा। तब श्रीकृष्ण वहाँ से भाग निकले। इस तरह रणभूमि से भागने के कारण ही उनका नाम रणछोड़ पड़ा। जब श्रीकृष्ण भाग रहे थे तब कालयवन भी उनके पीछे-पीछे भागने लगा। इस तरह भगवान रणभूमि से भागे क्योंकि कालयवन के पिछले जन्मों के पुण्य बहुत अधिक थे और कृष्ण किसी को भी तब तक सजा नहीं देते जब कि पुण्य का बल शेष रहता है। कालयवन कृष्ण की पीठ देखते हुए भागने लगा और इसी तरह उसका अधर्म बढऩे लगा क्योंकि भगवान की पीठ पर अधर्म का वास होता है और उसके दर्शन करने से अधर्म बढ़ता है। जब कालयवन के पुण्य का प्रभाव खत्म हो गया कृष्ण एक गुफा में चले गए। जहाँ मुचुकुंद नामक राजा निद्रासन में था। मुचुकुंद को देवराज इंद्र का वरदान था कि जो भी व्यक्ति राजा को निन्द्रा से जगाएगा और राजा की नजर पढ़ते ही वह भस्म हो जाएगा। कालयवन ने मुचुकुंद को कृष्ण समझकर उठा दिया और राजा की नजर पढ़ते ही राक्षस वहीं भस्म हो गया।




( वैष्णव संतों की भाँति तुलसीदास राम और कृष्ण को भगवान विष्णु का अवतार मानते थे और उनमें किसी प्रकार का भेद नहीं किया करते थे।)


जाग तुझको दूर जाना है


महादेवी वर्मा
(जन्म: 1907 निधन: 1987)

महादेवी वर्मा छायावाद की प्रमुख कवयित्री है जिन्होंने काव्य और गद्‌य दोनों क्षेत्र में अपनी प्रतिभा से प्रसिद्‌धि प्राप्त की है। इन्होंने प्रयाग विश्वविद्‌यालय से संस्कृत में एम०ए० किया। इन्होंने प्रयाग महिला विद्‌यापीठ में आचार्य के पद पर कार्य किया। 1956 में इन्हें पद्‌मभूषण की उपाधि से अलंकृत किया गया। 1988 में इन्हें मरणोपरान्त पद्‌मविभूषण से भी सम्मानित किया गया।
महादेवी वर्मा के काव्य में रहस्यवाद का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। इनकी कविताओं में प्रेम, विरह-वेदना और करुणा की अभिव्यक्ति हुई है। इन्हें आधुनिक युग की मीरा भी कहा जाता है।
  इन्होंने    चाँद मासिक पत्रिका का संपादन किया।
महादेवी वर्मा की भाषा में संस्कृत के शब्दों का अधिक प्रयोग किया गया है जिसमें सहजता, कोमलता और मधुरता है। महादेवी वर्मा की काव्य शैली मुक्तक शैली ( किसी सीमित विषय पर छोटी कविता) है। रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है - " गीत लिखने में जैसी सफलता महादेवी जी को मिली है, वैसी किसी और को नहीं।"
प्रमुख रचनाएँ - नीहार, रश्मि, नीरजा, दीपशिखा, यामा (ज्ञानपीठ पुरस्कार) आदि इनके काव्य संग्रह हैं।

कठिन शब्दार्थ

चिर सजग - हमेशा सावधान
उनींदी - नींद से भरी
अलसित - अशोभित
तिमिर - अंधकार
निठुर - निर्दयी
सजीले - सुन्दर
क्रन्दन - सुदन, रोना
कारा - जेल
मधुप - भौंरा
वज्र का उर  - कठोर हृदय
मलय - मलयाचल से आने वाली शीतल-सुगंधित हवा
वात - हवा
उपधान - तकिया
अमरता सुत - अमरत्व का पुत्र
दृग - आँख
मानिनी - मान करने वाली, गर्ववती
अंगार शैय्या - आग का बिस्तर
मृदुल - कोमल

उद्‌यमी नर


रामधारी सिंह 'दिनकर'
(23 सितम्बर 1908 - 24 अप्रैल 1974)
रामधारी सिंह 'दिनकर 'हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार हैं। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।
'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये।  इनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति है। उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की। 
उन्हें पद्‌म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय ‍ के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। 
इनकी भाषा सहज तथा संस्कृतनिष्ठ है। 
प्रमुख रचनाएँ - रेणूका, हुँकार, कुरूक्षेत्र, धूप-छाँव, दिल्ली, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा आदि।

शब्दार्थ

विभव - धन-संपत्ति
कोष - खज़ाना
तुष्ट - संतुष्ट
आवरण - परदा
उद्‌य़मी - मेहनती
भुजबल - भुजाओं की ताकत से
श्रमजल - पसीना
अभिलेख - लिखा हुआ
निरुद्‌यमी - अकर्मण्य, आलसी
कुअंक - दुर्भाग्य
भ्रुव - भौंह
शोषण - दूसरे की मेहनत के प्रतिफल को हड़पना
वसुधा - धरती
संचित - इकट्‌ठा
अर्थ - धन
विजित - जिस पर विजय पा ली हो









कवि परिचय

बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद के नज़दीक प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। इनको बाल्यकाल में बच्चन कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ बच्चा या संतान होता है ।  उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम. ए. और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएच. डी. पूरी की।
१९२६ में १९ वर्ष की उम्र में उनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ जो उस समय १४ वर्ष की थी । लेकिन १९३६ में श्यामा की टीबी के कारण मृत्यु हो गई । पांच साल बाद १९४१ में बच्चन ने एक पंजाबन तेजी सूरी से विवाह किया जो रंगमंच तथा गायन से जुड़ी हुई थीं । इसी समय उन्होंने नीड़ का पुनर्निर्माण जैसे कविताओं की रचना की ।
कार्यक्षेत्र : इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन। बाद में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ रहे। अनन्तर राज्य सभा के मनोनीत सदस्य। बच्चन जी हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में अग्रणी हें।
उनकी कृति "दो चट्‌टानें" को १९६८ में हिन्दी कविता का साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसी वर्ष उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। बिड़ला फाउन्डेशन ने उनकी आत्मकथा के लिये उन्हें सरस्वती सम्मान दिया था। बच्चन को भारत सरकार द्वारा १९७६ में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्‌म भूषण से सम्मानित किया गया था।
मध्ययुगीन फ़ारसी कवि उमर ख़य्याम का मस्तानापन बच्चन की प्रारंभिक कविताओं में स्पष्ट दिखता है। ख़य्याम की रुबाइयों से ही प्रेरित होकर उन्होंने ’मधुशाला’ की रचना की थी।
बच्चन की कविताओं में आम आदमी की पीड़ा, उसके दुख-दर्द को बड़ी ही ईमानदारी के साथ प्रस्तुत किया गया है। बच्चन जीवन संघर्ष से कभी हार न मानने वाले कवि हैं।
इनका निधन  १८ जनवरी २००३ को मुम्बई में हुआ।

प्रमुख रचनाएँ -
मधुशाला (1935)
मधुबाला (1936)

मधुकलश (1937)

निशा निमंत्रण (1938)

एकांत संगीत (1939)

आकुल अंतर (1943)

सतरंगिनी (1945)

हलाहल (1946)

बंगाल का काव्य (1946)
खादी के फूल (1948)
सूत की माला (1948)

कठिन शब्दार्थ

मनमोहक - मन को अच्छा लगने वाला
मनोरम - सुंदर
मधुपात्र - मदिरापान का पात्र (गिलास)
चंचला - बिजली
तृष्णा - प्यास
कालिमा - कालस (दुख)
अथिरता - अस्थिरता
अंबरे-अवनि - आकाश-धरती
गोया - जैसे
मीत - मित्र
लौ लगाना - प्रेम करना
आशियाना - घर



बाललीला
सूरदास

(जन्म-1478  निधन-1563)

कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में सूरदास का नाम सर्वोपरि है। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। सूरदास हिन्दी साहित्य में भक्ति काल के सगुण भक्ति शाखा के कृष्ण-भक्ति उपशाखा के महान कवि हैं।
सूरदास का जन्म १४७८ ईस्वी में रुनकता नामक गांव में हुआ। यह गाँव
मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। सूरदास के पिता रामदास गायक थे। उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में १५८० ईस्वी में हुई।
सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूर ने अपनी कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है।
सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं -
सूरसागर - जो सूरदास की प्रसिद्‌ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं।
सूरसारावली
साहित्य-लहरी - जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं।
४ नल-दमयन्ती
५ ब्याहलो

कठिन शब्दार्थ
नवनीत - मक्खन
घुटुरुन - घुटनों से
रेनु - धूल
चारु - सुंदर
कपोल - गाल
लोल - चंचल
लोचन - नेत्र
मधुप गन - भौरें
केहरि - सिंह
हलधर - बलराम
बधैया - बधाई
दाऊ - बड़ा भाई, बलराम
खिझायो - चिढ़ाया
जायो - जन्म दिया
रिस - गुस्सा
नदी के द्‌वीप
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय
(जन्म- 7 मार्च, 1911 निधन- 4 अप्रैल, 1987)
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" को प्रतिभासम्पन्न कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना जाता है। इनका जन्म  उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता। बी.एस.सी. करके अँग्रेजी में एम.ए. करते समय क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़कर बम बनाते हुए पकडे गये और वहाँ से फरार भी हो गए। सन् 1930 ई. के अन्त में पकड़ लिये गये। अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं।  कुछ वर्षों तक आकाशवाणी में सलाहकार भी रहे। विक्रम विश्वविद्‌यालय ने इन्हें डी०लिट्‌ की उपाधि से सम्मानित किया। "आँगन के पार द्‌वार" पर सन्‌ 1964 में इन्हें साहित्य अकादमी के पुरस्कार तथा 1978 में " कितनी नावों में कितनी बार" पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इन्होंने अनेक वर्षों तक दैनिक नवभारते टाइम्स का संपादन किया। इनकी रचनाओं में दार्शनिकता और चिंतन को विशेष महत्त्व दिया गया है। इनकी भाषा सहज है जिसमें तत्सम एवं नए मुहावरों का भरपूर प्रयोग किया गया है।
प्रमुख रचनाएँ - हरी घास पर क्षण भर, इत्यलम, बावरा अहेरी, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, सागर मुद्रा आदि।

कठिन शब्दार्थ
द्‌वीप - टापू, चारों ओर पानी से घिरा भू-भाग
स्रोतस्विनी - नदी
कोण - नोक या कोना
गलियाँ - दो भागों में बाँटने वाला मार्ग
अंतरीप - भू-भाग का वह पतला भाग जो जल में दूर तक चला जाता है
उभार - उठान या ऊँचाई
सैकत कूल - रेतीला किनारा
गढ़ी - काँट-छाँटकर सुडौल बनाई गई
अनुपयोगी - व्यर्थ
प्लवन - बाढ़
सलिल - पानी
गंदला - मैला
नियति - भाग्य
क्रोड - गोद
वृहत - विशाल
पितर - पिता



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