सौमित्र आनंद
( शिक्षक :
द हेरिटेज स्कूल)
आई०सी०एस०ई एवं आई०एस०ई०
अखिल भारतीय लोरेटो
तथा
पश्चिम बंगाल प्राथमिक
हिन्दी शिक्षकों की विभिन्न कार्यशालाओं
का संचालन।
शिक्षण कला है और शिक्षक संस्कृत-कर्मी
पिछले पाँच वर्षों से हिन्दी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया पर
विभिन्न कार्याशालाओं का संचालन करने के उपरांत यह समझ पक्की हुई है कि एक शिक्षक
होने के नाते मैं या हम सब जो शिक्षण से
जुड़े हुए हैं, अपने विद्यार्थियों के लिए रोल मॉडल की तरह हैं। आपकी कक्षा में बैठा
हर विद्यार्थी आपकी ओर ज्ञान-प्राप्ति की आशा में टकटकी लगाए बैठा है। आपके कहे
हुए हर शब्द और वाक्य उसके लिए ब्रह्म शब्द हैं जिसकी सच्चाई पर वह पूर्ण विश्वास
करता है या करने की कोशिश में लगा रहता है। अत: शिक्षकों का यह परम कर्त्तव्य है
कि वे अपनी कक्षाओं को ज्ञान की प्रयोगशाला बनाएँ जहाँ हर उस गतिविधि और प्रयोग की
गुंजाइश बनी रहे जो आपके विद्यार्थियों के हर तरह के अभाव, अज्ञान और संताप को
मुक्त करने में उनका सहयोग कर सके क्योंकि अच्छी शिक्षा के आधार पर ही मानवीय,
प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष समाज की परिकल्पना की जा सकेगी।
मैंने अपनी कार्यशालाओं के दौरान शिक्षण से जुड़े कई पहलुओं
पर शिक्षकों से विचार-विमर्श किए हैं जिसके आधार पर यह आम राय बनी है कि प्राथमिक
स्तर पर शिक्षण के लिए मातृभाषा के अध्ययन से दूसरा अच्छा विकल्प नहीं हो सकता है।
प्राथमिक स्तर पर बच्चे छह साल की उम्र में विद्यालय जाना
शुरू करते हैं और यहीं से शुरुआत होती है शिक्षण अधिगम प्रक्रिया ( Teaching Learning Process) की। बच्चे नियमित
रूप से विद्यालय जाते हैं और विद्यालय के शैक्षणिक माहौल में जितना सीखना है, वे
वाकई में उतना सीख जाते हैं। बच्चों के सीखने की प्रक्रिया सहज और स्वाभाविक होती
है। शिक्षक उस कक्षा के लिए निर्धारित पाठ्यपुस्तक के पहले पाठ से आरम्भ करता है।
शिक्षक कक्षा के लिए निर्धारित पाठ को नियमित रूप से पढ़ाते हैं। लेकिन प्रश्न उठता
है कि जब कोई बच्चा शैक्षणिक प्रगति में पीछे छूट गया है या पिछड़ गया है तो कितना
पिछड़ गया है या उसने आरम्भिक कक्षाओं में कितना आधारमूलक ज्ञान प्राप्त किया है या
नहीं किया है। कक्षाओं में शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया अपनी सहज निरन्तर गति से
बढ़ती है जिसमें विद्यार्थियों का सतत और सामाग्रिक मूल्याकंन होता रहता है। दरअसल
मूल्यांकन का मकसद यह देखना है कि विद्यार्थी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास
कहाँ तक हुआ है। मूल्यांकन का मुख्य उद्देश्य शिक्षक अधिगम प्रक्रिया तथा सीखने
की क्रियाओं से उत्पन्न अनुभवों की उपयोगिता के बारे में निर्णय देना।
सतत मूल्यांकन करते वक्त शिक्षक को निम्नलिखित तथ्यों का
ध्यानपूर्वक अवलोकन करना चाहिए –
(i) वर्ष की शुरुआत में ही विद्यार्थियों के विषय
ज्ञान, दक्षता, शारीरिक क्षमता आदि को लिखित रूप में सहेजकर रखना।
(ii) शिक्षक ने सप्ताह के दौरान कक्षा में जो भी
पढ़ाया या गतिविधि कराया है, उसे लिपिबद्ध करना।
(iii) शिक्षक पाठ-योजना के आधार पर ही शिक्षण गतिविधि
को आगे बढाएगा।
(iv) साप्ताहिक मूल्यांकन अति आवश्यक है जिसके
अंतर्गत विद्यार्थियों के मौखिक, पठन तथा लिखित ज्ञान का परिमापन आवश्यक है।
उपरोक्त सतत मूल्यांकन के
परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि धारा-प्रवाह ढंग से पढ़ने तथा बुनियादी
अंकगणित में ठोस आधार के बिना विद्यार्थियों के लिए विद्यालय में आगे बढ़ना संभव
नहीं है। यह जरूरी है कि विद्यार्थी नियमित रूप से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में
शामिल हों तथा अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करें।
भाषा मनुष्य की अपनी
आकांक्षाओं, रुचियों एवं भावों की अभिव्यक्ति है। भाषा का इस्तेमाल कर एक मनुष्य, दूसरे
मनुष्य से अपने भावों एवं विचारों का आदान-प्रदान करने में सक्षम होता है। बाल
मनोविकास का प्रधान साधन मातृभाषा की शिक्षा है क्योंकि बालक के सोचने, समझने और
उसके अनुभव करने का साधन उसकी मातृभाषा ही होती है। मातृभाषा का सफल शिक्षण
सम्पूर्ण शिक्षा का आधार है। मातृभाषा ही सब विषयों, ज्ञान-विज्ञान का मूल आधार
होती है। अत: मातृभाषा का शिक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसी पर अन्य विषयों
की पूर्णता, योग्यता और सफलता निर्भर है तथा उसी पर शिक्षा की सफलता आधारित है।
मैंने कार्याशालाओं के दौरान अनुभव किया है कि मातृभाषा सीखने के क्रम को लेकर हिन्दी शिक्षकों में थोड़ा बहुत मतभेद जरूर रहता है लेकिन गहन विचार-विमर्श के बाद तथा शिक्षाविदों और एन०सी०टी०ई० एवं इग्नु के प्रतिनिधियों के सहयोग से तैयार की गई सहायिका पुस्तकों ( प्राथमिक शिक्षण प्रशिक्षण – डी०एल०एड० पाठ्यक्रम ) में यह क्रम निम्नलिखित रूप में सुझाया गया है-
(i) सुनना
(ii) बोलना
(iii) पढ़ना
(iv) लिखना
प्राथमिक स्तर पर बच्चा
अपने व्यस्कों से सुनकर सीखता है और यहीं से शुरू होती है सुनने के महत्त्व का
विकास। एक अच्छा वक्ता उसे ही माना जाता है जो जितना अच्छा श्रोता होता है। बालक
जब तक शांत होकर सुनेगा नहीं, तो वह समझ नहीं सकता और समझ में नहीं आने के कारण वह
उचित भाषा नहीं सीख सकता। बालक को सुनने का अभ्यास कैसे कराया जाए ? इस पर कई
शिक्षकों ने अपनी राय रखी जिसका विश्लेषण करने के उपरांत कुछ खास तरीकों पर
ध्यान-केन्द्रित किया जा सकता है; जैसे बच्चों को कहानी सुनना पसंद है। यदि शिक्षक
कक्षा में बच्चों को रोचक कहानी पाठ करके सुनाए तो बच्चों में सुनने की आदत का
विकास किया जा सकता है तथा बच्चा मातृभाषा के स्वर, व्यंजन, शब्द और वाक्य को समझ
पाएगा। इसके अलावा गीत, चित्रकला, बातचीत आदि के द्वारा भी रोचकता के साथ शिक्षक
बच्चों में सुनने की कला का विकास आसानी से कर सकता है।
विद्यार्थियों में बोलने
की कला का विकास उसके वाचन-क्षमता पर निर्भर करता है जिसके तीन भेद हो सकते हैं –
सस्वर वाचन, मौन वाचन तथा अध्ययन। जब एक बालक वाचन करता है तब यह जरूरी है कि वह
अक्षर-अभिव्यक्ति, शब्दोचारण, बल, स्वर माधुर्य, उचित गति तथा पठन मुद्रा पर विशेष
ध्यान दे जिसमें शिक्षक की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
लिखने की शुरुआत बच्चों
से कब करवाई जाए ? इस विषय पर कार्यशाला में शिक्षकों की राय में एकरूपता थी। उनका
मानना था कि बालक को लिखना तभी आरम्भ करना चाहिए जब वह अपनी माँसपेशियों पर
नियंत्रण रखना सीख चुका हो। बच्चों से पहले चित्रकारी करवानी चाहिए। तत्पश्चात वह
अनुकरण विधि, रचनात्मक विधि, मांटेसरी विधि, विश्लेषण विधि, संश्लेषण विधि आदि का
प्रयोग करे।
आज विद्यालयों में हिन्दी पढ़ने-पढ़ाने की
संस्कृति, हिन्दी साहित्य को जानने की ललक धीरे-धीरे हमारे विद्यार्थियों के बीच
से कम होती जा रही है, ऐसी स्थिति में हिन्दी शिक्षक-शिक्षिकाओं के लिए यह जरूरी
है कि वे खुद को तकनीकि रूप से समृद्ध करें। शिक्षण खुले आसमान की तरह है जहाँ
ऊँचाई पर देर तक उड़ने के लिए मज़बूत पंखों की ज़रूरत होगी...चलो ऊँची उड़ान भरे...।
शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया
के उन्नयन के लिए कार्यशालाओं का नियमित अंतराल पर होना अपेक्षित है जिसकी सहायता
से शिक्षक अपने अनुभवों को एक-दूसरे से साझा कर सकेंगे और अपनी कक्षाओं का मौलिक
स्तर भी बढ़ा पाएँगे।
शिक्षण कला है और शिक्षक
एक संस्कृत-कर्मी जिसे सीमित साधनों का प्रयोग करते हुए असीमित संभावनाओं की तलाश
करनी है। शिक्षक का काम उस कुम्भकार की तरह है जिसे गीली मिट्टी को आकर देना होता
है यदि उसने सही आकार दे दिया तो उसे मानसिक और भावनात्मक संतुष्टि की प्राप्ति हो
जाती है, अन्यथा वह अपने कर्म में असफल करार दिया जाएगा और जिसकी भरपाई पूरा समाज
भी नहीं कर पाएगा।
( 1 जून, 2015 को दैनिक समाचार-पत्र सलाम दुनिया में प्रकाशित )
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25 से 27 अक्टूबर 2015 को मैंने, विशाल सिंह के साथ संस्कार वैली स्कूल, भोपाल में तीन दिवसीय कार्यशाला का संचालन किया। इस कार्यशाल में मुख्यत: मुझे ICSE और ISC के विद्यार्थियों के साथ 2016 की परीक्षा को ध्यान में रखकर बातचीत करनी थी। मैंने कार्यशाला के पहले सत्र में व्याकरण के पाठ्यक्रम को लेकर व्यापक चर्चा की और उसके पश्चात एकांकी सुमन और चंद्रगुप्त विक्रमादित्य पर विस्तार से बात हुई। विद्यार्थियों ने कार्यशाला के दौरान अपनी समस्याओं को रखा जिसके समुचित समाधान का प्रयास किया गया।। इसके अलावा शिक्षकों के साथ भी सूक्ष्म शिक्षण और आधुनिक सूचना तकनीक के इस्तेमाल पर सार्थक बहस हुई। इस कार्यशाला के आयोजन के लिए विद्यालय की हिन्दी विभागाध्यक्षा श्रीमती कीर्ति मुंशी जी एवं समस्त हिन्दी विभाग का प्रयास अत्यंत सराहनीय है जिन्होंने विद्यार्थियों के शैक्षणिक लाभ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाया।
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