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सारा आकाश




राजेन्द्र यादव

राजेन्द्र यादव (जन्म: 28 अगस्त 1929 मृत्यु: 28 अक्टूबर 2013) हिन्दी के सुपरिचित लेखक कहानीकार, उपन्यासकार व आलोचक थे। नयी कहानी के नाम से हिन्दी साहित्य में उन्होंने एक नयी विधा का सूत्रपात किया। राजेन्द्र यादव ने उपन्यासकार मुंशी प्रेमचन्द द्वारा सन् 1930 में स्थापित साहित्यिक पत्रिका हंस का पुनर्प्रकाशन 31 जुलाई 1986 को प्रारम्भ किया था। यह पत्रिका सन् 1953 में बन्द हो गयी थी। इसके प्रकाशन का दायित्व उन्होंने स्वयं लिया और अपने मरते दम तक पूरे 27 वर्ष निभाया।

राजेन्द्र यादव ने 1951 ई० में आगरा विश्वविद्यालय से एम०ए० की परीक्षा हिन्दी साहित्य में प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण की। उनका विवाह सुपरिचित हिन्दी लेखिका मन्नू भण्डारी के साथ हुआ ।

हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा राजेन्द्र यादव को उनके समग्र लेखन के लिये वर्ष 2003-04 का सर्वोच्च सम्मान (शलाका सम्मान) प्रदान किया गया था।

नवीन सामाजिक चेतना के कथाकार राजेन्द्र यादव की पहली कहानीप्रतिहिंसा(1947) कर्मयोगी मासिक में प्रकाशित हुई थी। उनके पहले उपन्यास प्रेत बोलते हैं (1951) जो बाद में सारा आकाश (1959) नाम से प्रकाशित हुई उन्हें अपने समय के प्रमुख उपन्यासकारों में स्थापित कर दिया। उन्होंने अपने साहित्य में मानवीय जीवन के तनावों और संघर्षों को पूरी संवेदनशीलता से जगह दी है। दलित और स्त्री मुद्दों को साहित्य के केंद्र में लेकर आए।

राजेन्द्र यादव विदेशी साहित्य के बड़े अध्येता थे और उन्होंने एन्टोन चेखव, तुर्कनेव, जॉन स्टेनबेड तथा अल्बर्ट कामस की रचनाओं का बेहतरीन अनुवाद किया।


राजेन्द्र यादव की भाषा सहज, सुबोध, व्यावहारिक तथा मुहावरायुक्त है। उनकी भाषा आम-जन की भाषा है। उनके भाषा प्रयोग और निर्वाह में कहीं भी शिथिलता नहीं दिखाई देती है। उनकी भाषा में तद्‌भव, तत्सम, देशज, अरबी-फ़ारसी तथा अँग्रेजी शब्दावली की भरमार है।
प्रमुख रचनाएँ
 
उपन्यास
  • सारा आकाश
  • उखड़े हुए लोग
  • शह और मात
  • एक इंच मुस्कान
  • कुलटा
  • अनदेखे अनजाने पुल
  • मंत्र विद्ध
  • स्वरूप और संवेदना
  • एक था शैलेन्द्र
कहानी संग्रह
  • देवताओं की मूर्तियां
  • खेल खिलौने
  • जहां लक्ष्मी कैद है
  • छोटे-छोटे ताजमहल
  • किनारे से किनारे तक
  • टूटना
  • ढोल और अपने पार
  • वहां पहुंचने की दौड़
कविता संग्रह
  • आवाज़ तेरी है
आलोचना
  • कहानी : अनुभव और अभिव्यक्ति
  • कांटे की बात - बारह खंड
  • प्रेमचंद की विरासत
  • अठारह उपन्यास
  • औरों के बहाने
  • आदमी की निगाह में औरत
  • वे देवता नहीं हैं
  • मुड़-मुड़के देखता हूं
  • अब वे वहां नहीं रहते
  • काश, मैं राष्ट्रद्रोही होता

सारा आकाश




मेरे लिए यह तीसरा उपन्यास भी है और पहला भी। इसकी मूल कहानी को जब मैंने रफ़ रूप में लिखा था तो नाम दिया था, ’प्रेत बोलते हैं’ । उस कहानी ने प्रेस के दर्शन भी किए और पुस्तक का रूप भी पाया - कुछ स्नेहियों ने उसे जाना और पढ़ा भी; लेकिन वास्तविकता यह है कि पुस्तक बाज़ार में नहीं ही आई; न आएगी। अब लगभग दस साल बाद मैंने जब उसी कहानी को अलग परिवेश और प्रभाव देने के लिए एकदम नए सिरे से लिख डाला है, नए अर्थ और अभिप्राय दिए हैं तो नाम भी नया ही दे दिया है। शायद यह नया रूप और आम ही अधिक सही और व्यापक है...

"सेनानी, करो प्रयाण अभय, भावी इतिहास तुम्हारा है,
 ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा आकाश तुम्हारा है।"

तेरह-चौदह वर्ष पहले किशोर-मन में गूँजती कवि दिनकर की ये पंक्तियाँ उपन्यास के नाम की प्रेरणा हैं और इन्हीं के संदर्भ में प्रस्तुत कथा अपनी सार्थकता भी खोजती है।....

- राजेन्द्र यादव




सारा आकाश प्रमुखत: निम्नमध्यवर्गीय युवक के अस्तित्व के संघर्ष की कहानी है, आशाओं, महत्त्वाकांक्षाओं और आर्थिक-सामाजिक, सांस्कारिक सीमाओं के बीच चलते द्‌वंद्‌व, हारने-थकने और कोई रास्ता निकालने की बेचैनी की कहानी है।

सारा आकाश का शीर्षक प्रतीकात्मक है। लेखक के शब्दों में सारा आकाश की ट्रेजडी किसी समय या व्यक्ति विशेष की ट्रेजडी नहीं, खुद चुनाव न कर सकने की, दो अपरिचित व्यक्तियों को एक स्थिति में झोंककर भाग्य को सराहने या कोसने की ट्रेजडी है। संयुक्त परिवार में जब तक यह चुनाव नहीं है, सकरी और गंदी गलियों की खिड़कियों के पीछे लड़कियाँ सारा आकाश देखती रहेंगी, लड़के दफ़्तरों, पार्कों और सड़कों पर भटकते रहेंगे।
एकांत आसमान को गवाह बनाकर आप से लड़ते रहेंगे, दो नितान्त अकेलों की यह कहानी तब तक सच है, जब तक उनके बीच का समय रुक गया है।

सारा आकाश की कहानी एक रूढ़िवादी निम्नमध्यवर्गीय परिवार की कहानी है। जिसका नायक समर एक अव्यावहारिक आदर्शवादी है। समर महत्त्वाकांक्षी युवक है जो इंटर फाइनल कक्षा का छात्र है। वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का एक सक्रिय सदस्य है और नियमित रूप से शाखा में जाता है। वह भारत की प्राचीन परम्पराओं से बँधा है तथा सिर पर चोटी रखता है। उसके परिवार की दशा अत्यंत दयनीय है। उसके पिता ठाकुर साहब पच्चीस रुपए महीना पेंशन पाते हैं। समर का बड़ा भाई धीरज १०० रुपए मासिक वेतन पर सर्विस करता है। परिवार के अन्य सदस्यों में माता, भाभी, दो छोटे भाई अमर तथा कुँवर तथा छोटी बहन मुन्नी है, जो पति द्‌वारा निकाल दी जाने के कारण मायके में रहती है। दोनों छोटे भाई छोटी कक्षाओं में पढ़ते हैं।

सारा आकाश उपन्यास दो भागों में विभक्त है -
पूर्वाद्‌र्ध: साँझ  बिना उत्तर वाली दस दिशाएँ और उत्तराद्‌र्ध: सुबह  प्रश्न पीड़ित दस दिशाएँ

प्रथम भाग
पूर्वाद्‌र्ध: साँझ  बिना उत्तर वाली दस दिशाएँ
एक

उपन्यास का प्रारम्भ समर की सुहागरात के दिन से होता है। घर में चारों ओर उल्लास का माहौल है। इसी समय ज्ञात होता है कि सामने वाले घर में साँवल की बहू ने मिट्‌टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली है। समर व्यथित होकर थका सा सबसे छिप-छिपाकर मंदिर की ओर जा रहा है। वह सोचता है -"मुझे इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि मुझे कुछ बनना है।" वह सोचता है कि भारत महापुरुषों का देश है। महाराणा प्रताप तथा शिवाजी का रक्त उसकी धमनियों में बह रहा है। उसके दिमाग में विवाह की बातें, बारातियों का व्यवहार, बारातियों का शराब के नशे में चूर होना, दहेज में कम सामान तथा नकदी मिलने के कारण ठाकुर साहब का क्रोध होना गूँज रहा था। समर नारी को प्रगति में बाधक मानता है। उसकी आकांक्षा एम०ए० करने की है किन्तु उसके पूर्व ही उसके पैर में शादी की बेड़ी डाल दी गई है। वह नारी को मोह, माया और अंधकार मानता है। नारी देवत्व की ओर उठते मनुष्यत्व को बाँधकर राक्षसत्व के गहरे अंधे कुओं में डाल देती है। समर निश्चय करता है कि वह इस कमजोरी के सामने झुकेगा नहीं। वह अपनी पत्नी प्रभा से बिल्कुल नहीं बोलेगा या केवल काम भर की बात करेगा।

 

दो
समर तथा प्रभा के मिलन की मधुर रात आती है। भाभी ढकेलकर समर को कमरे में बंद करती है। वह समझता है कि कमरे में प्रवेश करते ही उसकी पत्नी प्रभा लाज से सिकुड़ जाएगी परन्तु ऐसा नहीं हुआ। प्रभा खिड़की के पास ही खड़ी रही।
समर प्रभा के व्यवहार से अपमानित महसूस करते हुए कमरे से बाहर निकल जाता है। समर के मन में कुछ कर दिखाने की प्रतिशोधमूलक भावना उमड़ने लगी।वह रातभर रोता और सोचता रहा।

तीन

दूसरे दिन घर में यह खबर फैल जाती है कि समर ने रात में अपनी पत्नी प्रभा से बात नहीं की। भाभी के पूछने पर समर कहता है कि वह प्रभा का घमंड नहीं सह सकता। भाभी आग में घी का काम करते हुए कहती है कि प्रभा को अपनी सुंदरता और पढ़ाई का घमंड है। समर निश्चय करता है कि वह प्रभा से नहीं बोलेगा और खूब पढ़ेगा। दूसरे दिन प्रभा विवाह के उपरांत पहली बार खाना बनाती है। समर को मनाकर खिलाने की व्यवस्था की जाती है। परन्तु जैसे ही समर पहला कौर मुँह में डालता है, थाली को ठोकर मारता हुआ रसोईघरबाहर निकल जाता है और कहता है कि दाल में नमक नहीं ज़हर पड़ा है।
दूसरे दिन प्रभा के भाई आते हैं और प्रभा मायके चली जाती है। घर का वातावरण पहले जैसा हो जाता है।





चार

समर के माता-पिता को बड़ा दुख हुआ कि विवाह के माध्यम से आर्थिक दृष्टि से कोई लाभ नहीं हुआ। घर में आर्थिक तंगी की वजह से लड़ाई-झगड़े होने लगे। माता-पिता चाहते थे कि समर नौकरी कर ले ताकि बड़े भाई धीरज को घर- खर्च चलाने में थोड़ी आसानी हो जाए। भाभी समर को प्रभा के विषय में भड़काती है।  विवाह, परिवार के प्रति आक्रोश, पत्नी के प्रति अरुचि, परीक्षा की चिंता आदि ने समर के सपने को चूर-चूर कर दिया था और वह कुंठित हो गया था। पहले घर से भागकर वह मंदिर जाता था लेकिन पुजारी जी का पंजाबी शरणार्थी के प्रति अमानवीय व्यवहार देखकर
अब वह मंदिर भी नहीं जाता है।


पाँच

घर में अम्मा और जेठानी प्रभा से असंतुष्ट हैं। अम्मा को मनचाही रकम शादी में न मिलने का गुस्सा है तो दूसरी ओर भाभी इस कारण प्रभा से नाराज़ हैं कि वह उससे अधिक पढ़ी-लिखी तथा रूपवती है। मुन्नी का झुकाव प्रभा की ओर है क्योंकि वह भी पीड़ित नारी है। वह प्रभा के दर्द को महसूस कर सकती है। एक दिन खाना परोसते समय मुन्नी ने समर से पूछा कि क्या वह वास्तव में भाभी से नहीं बोला था  और क्या समर दूसरी शादी करना चाहता है ? मुन्नी समर को कुछ कहना चाहती थी कि भाभी वहाँ आ जाती है। वह समर से बात करने लगती है। प्रभा की बुराई सुनते-सुनते समर अब थककर कॉलेज चला जाता है। समर मन में सोचता है
कि प्रभा कितनी घमंडी है, उसे मायके गए छह महीने बीत गए हैं परन्तु उसने एक भी पत्र नहीं लिखा। उसके साथ यह ज़िन्दगी कैसे कटेगी।







छह

 प्रभा मायके से लौट आई। समर का मन प्रभा के प्रति कोमल हो उठा। अमर से ज्ञात होता है कि समर के ससुराल वाले उसकी प्रशंसा कर रहे थे। रात को लालटेन जलाकर पढ़ने का दिखावा करके वह प्रभा की प्रतीक्षा में बैठा है। इस बीच प्रभा तथा भाभी की बात सुनाई पड़ती है। "जबरदस्ती वहीं कहाँ सो जाऊँ ? मुझसे तो नहीं होता जिठानीजी, कि कोई दुत्कारता रहे और पूँछ हिलाते रहो, ठोकर मारता रहे और तलुए चाटते रहो। उनके बोर्ड के इम्तिहान हैं मैं क्यों तंग करूँ ? इसे सुनकर समर निर्णय करता है कि वह प्रभा से कभी संबंध नहीं रखेगा। रात भर समर कूढ़ता रहा, उसकी क्रोधाग्नि, कुंठा, विरक्ति भावना सुलगती रही।  दूसरे दिन समर प्रभा के लिए अलग कमरा देने की बात करता है परन्तु घर में अलग कमरा हो तो दिया जाए।


सात


दूसरे दिन समर भाभी के सामने अपनी रात्रि-कालीन क्रोधाग्नि को व्यक्त करता है। भाभी ने नमक-मिर्च लगाकर प्रभा की बुराइयाँ की। अब समर प्रभा से प्रतिशोध लेने के उपाय सोचने लगा। उसने भाभी से कह दिया कि प्रभा को घर के कामों में समय देना चाहिए। इसी बीच भाभी ने एक बच्ची को जन्म दिया। घर में सबके मुख पर फीकी प्रसन्नता दिखाई पड़ी। गृहस्थी कार्य का समस्त भार प्रभा के ऊपर आ पड़ा। प्रभा बिना कुछ कहे यन्त्रवत सुबह से लेकर देर रात तक सारा काम करती है। पहले प्रभा को कार्य करते देखकर समर को तृप्ति मिलती है लेकिन बाद में उसे व्याकुलता की अनुभूति होती है।



प्रभा परदा नहीं करती है जिसे लेकर घर में हंगामा मचा करता है। बच्ची के नामकरण के दिन मिट्‌टी के गणेश को ढेला समझकर प्रभा ने फेंक दिया। घर में बड़ा हंगामा मच गया। समर गुस्से में आकर प्रभा को ज़ोरदार तरीके से तमाचा जड़ देता है। 



आठ


प्रभा को तमाचा मारकर समर पश्चापात की आग में जलता रहा। यद्‌यपि वह प्रभा के प्रति उदासीन रहने का प्रयास करता तथापि उसकी स्थिति देखकर उसका हृदय पसीज जाता। समर परीक्षा को लेकर अत्यंत चितिंत रहता। एक दिन भाभी की बच्ची का दूध न जाने कैसे गिर गया, घर में हंगामा खड़ा हो गया। प्रभा को खूब सुनाया गया , परन्तु समर पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। जाड़े के दिनों में प्रभा थोड़े से कपड़ों में अपनी ज़िन्दगी काट रही है। उधर समर की परीक्षा सिर पर आ गई। प्रभा अंदर ही अंदर सूखती जाती है, उसका सौन्दर्य झुलसता जाता है।


एक दिन प्रभा खुली छत पर सिर धो लेती है। इसको लेकर घर में पहाड़ खड़ा हो जाता है।





 

नौ

समर की परीक्षा समाप्त हो जाती है। वह अपने मित्र दिवाकर के साथ सिनेमा देखने का कार्यक्रम बनाता है। घर लौटने पर पता चलता है कि मुन्नी के पतिदेव उसे विदा कराने आए हुए हैं। मुन्नी जाना नहीं चाहती है, माँ भी नहीं भेजना चाहती है परन्तु ठाकुर साहब चाहते हैं कि वह अपने पति के साथ चली जाए। अगली सुबह मुन्नी को विदा कर दिया जाता है। जाते समय मुन्नी समर से कहती है - " भैया, भाभी से बोलना, उन्होंने कुछ भी नहीं किया..."।



 








दस
रात में समर दिवाकर के घर खाना खाकर लगभग ११ बजे रात को घर लौटा। मन में अनेक चिंताएँ उठ रही थीं। घर वाले चाहते थे कि समर कुछ कमाए। उसे प्यास लगी थी। देखा कमरे में पानी नहीं था। पानी के लिए वह छत पर गया तो देखा कि एक कोने में बैठी प्रभा रो रही है। पानी पीकर समर कमरे में आया परन्तु उसकी नींद तो उड़ गई थी। अन्तद्‌र्वंद्‌व की स्थिति में वह पुन: प्रभा के पास आया और कहा -" आधी रात को यहाँ बैठकर क्या कर रही हो ?" इतना सुनकर प्रभा फफक पड़ी। खंडित स्वर में समर बोला -" प्रभा तुम मुझसे नाराज़ हो।" प्रभा की रुलाई और अधिक बढ़ गई। दोनों एक-दूसरे से लिपट कर रात भर रोते रहे। सुबह हो जाती है। प्रभा कहती है -" हमें एक पोस्टकार्ड  दे दीजिए, मैं बहुत दिनों से माँ को लिखना चाह रही थी-पैसे नहीं थे।" और धोती के पल्ले से आँखें पोंछती वह बाहर चली गई।



 कठिन शब्दार्थ
अंक-१
फाटक - किवाड़
अलाप - चिल्लाने की आवाज़
बौखलाए - गुस्से में बड़बड़ाना
अनिष्ट - बुरी घटना
विलायती - विदेशी
गोधूलि - शाम का समय
साक्षी - गवाह
उदासीन - किसी भाव को न महसूस करना
अंक-२
भावुक - कोमल भाव वाला
ज्योतिर्वलय - प्रकाश के कण
प्रचंड - तेज़
नितांत - पूरी तरह से
अंक-३
निरासक्ति - बिना लगाव या विराग्य का भाव
आतंक - डर, भय
महत्त्वाकांक्षएँ - आगे बढ़ने की इच्छा या ऐसी इच्छा जिसके आगे और कुछ भी नज़र न आए
गुंजाइश - संभावना
उच्चादर्श - बड़ी-बड़ी मान्यता
समवयस्क - बराबर की उम्र वाला
अप्रत्याशित - जिसकी उम्मीद न हो
रुआँसी - रोती हुई सी
अंक-४
बौद्‌धिक - बुद्‌धि से संबंधित
उद्‌वेलन - उफनना, छलकना
झंझोड़ - झटके से इस प्रकार हिलाना कि वह टूट जाए
वितृष्णा - विशेष प्रकार की इच्छा
विरक्ति - संसार को छोड़ने का भाव
निरर्थक - व्यर्थ, बेकार
 अंक-५
अन्यमनस्क - बिना ध्यान के या बिना मन के
दुर्निवार - कठिन
धींगरे ऊँट - ऊँट की तरह लम्बा या बड़ा होना
अंक-६
दुश्चिंताएँ - बुरे ख्याल
दाम्पत्य - पति-पत्नी के जोड़े से संबंधित
शास्त्रार्थ - प्रश्न-उत्तर करने की प्रतियोगिता जैसा भाव या बातचीत
आत्म प्रशंसा - अपना बखान या तारीफ करना
जिज्ञासा - जानने की इच्छा
अंक-७
पुण्य-प्रताप - अच्छे काम का नतीजा
दिलचस्पी - रुचि या इच्छा
तात्कालिक - उसी समय से संबंधित
प्रतिक्रिया - कार्य का उत्तर या प्रतिउत्तर
आत्मघाती - अपने आप को नुकसान करने वाली

 अंक - ८
निर्लक्ष्य - बिना किसी लक्ष्य के
झुंझलाहट - बिना किसी कारण के
गुमसुम - उदास या अकेलेपन से भरा हुआ
निर्जीव - जीवन से रहित या जिसमें जीवन न हो
इम्तिहान - परीक्षा
दियासिलाई - माचिस
फुरसत - खाली समय
अंतर्बाह्‌य - अंदर और बाहर दोनों भाग
अंक -९
तशरीफ - आना या आने का आदरसूचक शब्द
निपूता - जिसकी कोई संतान न हो
ढुलककर - नीचे की ओर खिसककर
भावातिरेक - भावों की अधिकता
समाधिस्थ - समाधि में खो जाना या डूब जाना
अंक-१०
कसक - दर्द या दर्द का एहसास-सा कुछ भाव
प्रण - कसम
धर्म संकट - कार्य करें या न करें का भाव
फुरहरी - गुदगुदी सा एहसास
दुर्वासा - एक ऋषि का नाम जो अपने क्रोध के कारण प्रसिद्‌ध हैं
खैरियत - अच्छा होना या ठीक-ठाक होना
कोलाहल - शोर-शराबा
समवेत - एक साथ मिलकर
मर्मातंक - मर्म या हृदय तक पहुँची हुई, हृदय को भेदने वाली
अचेतप्राय - बेहोशी की हालत की ओर जाने वाला
उत्तराद्‌र्ध: सुबह  
प्रश्न पीड़ित दस दिशाएँ
एक
समर के जीवन में सुखद परिवर्तन आता है। मारे प्रसन्नता के वह दिवाकर के यहाँ जा पहुँचा। कुछ देर तक परीक्षा परिणाम, नौकरी, आगे की पढ़ाई आदि की चर्चा करके वह चार-पाँच पोस्ट कार्ड लेकर घर लौट आता है। जब समर खाना खाने बैठा तो प्रभा की फटी धोतियाँ देखकर उससे खाया नहीं गया। थाली सरकाकर वह उठा तो प्रभा ने कहा - " क्यों?" समर बहाना बनाकर बाहर आ गया। यह बात पूरे घर में फैल गई कि दोनों अब तो आपस में बोलने लगे। अम्मा समर से कहती है कि बाबूजी को नवलकिशोर पंडित जी की बैठक से बुला ला ताकि वे भी गरम-गरम खा लें। नवलकिशोर जी की पत्नी समर को देखते ही कहती हैं - "कौन? समर? अरे बेटा, तूने तो आना-जाना ही छोड़ दिया। इम्तिहान हो गए? बड़ा अच्छा हुआ बेटा! अरे हाँ, हमने सुना, तू अपनी बहू से बोलता नहीं था, अब बोलने लगा है।" समर जिधर जाता यही बात सुनने को मिलती है।

कठिन शब्दार्थ
आयातकार - चौरस, चार कोण वाला
खुशामद - चापलूसी करना
दुर्गुण - बुरा स्वभाव या गुण
उन्मुक्त - अपने में आज़ाद या स्वतंत्र
स्वप्नविष्ट - सपनों में डूबा हुआ
दो
रात को समर और प्रभा के बीच बातचीत होती है और अनेक रहस्य खुलते हैं। समर को प्रभा का सानिध्य अच्छा और रोमांचक लगता है। बातचीत में भाभी का ईर्ष्यालु स्वभाव, पति-पत्नी के बीच की कटुता की बातें खुलकर हुई। दोनों के मन में जमी मैल दूर हुई। प्रभा अपने संजोये सपनों को समर के सामने रखा और समर ने प्रभा के सामने बातों में अपने भविष्य के इरादों को रखा और उसकी सलाह माँगी।
कठिन शब्दार्थ

ज्योतिर्मय - प्रकाश या उजाले से भरा हुआ
उलाहना - दुख में क्रोध करते हुए बुरे शब्द कहना
स्वच्छंद - स्वतंत्र जिसे बाँधा न जा सके
साँझ - शाम
शरणार्थी - शरण में आया हुआ
नगण्य - महत्त्वहीन
शुमार नहीं किया जाता - गिना नहीं जाता

तीन

एक दिन समर ने प्रभा की फटी धोती देखकर पहले भाभी फिर माँ से एक धोती माँगी। माँ बिगड़ गई। उसके पिता ने यहाँ तक कहा कि कमाने-धमाने को कौड़ी नहीं और बहू की तरफ़दारी को शेर! शरम नहीं आती! थू है इस बेहयाई पर! यह बात समर के मन को चुभ गई। वह नौकरी ढूँढ़ने निकल पड़ा। रोजगार दफ़्तर के सामने एक अपरिचित ने बताया कि आज वहाँ भर्ती हो रही है। दस बढ़ई, पचास मज़दूर और तीन क्लर्कों की आवश्यकता थी। उस अपरिचित साहब ने बताया कि देश के नेताओं को शर्म नहीं आती है जो कहते हैं कि अब भारत स्वतंत्र है। उसके निर्माण के लिए इंजीनियर, डॉक्टर, मशीन चलाने वाले लोग और वैज्ञानिक चाहिए। सच तो यह है कि उन्हें किसी की ज़रूरत नहीं है। उन्हें तो बस अपनी कोठियों की क्यारी हरी-भरी रखने के लिए माली चाहिए तथा गाड़ी चलाने के लिए ड्राइवर। दोपहर बाद समर जब घर पहुँचा तो खाने की बात पर प्रभा की ओर से एक सुखद उलाहना भी मिला। उसी समय समर ने प्रभा की सहेली रमा का पत्र भी पढ़ा जिसमें प्रभा के सपनों के टूटने का पीड़ादायी दर्द था। रात में समर ने पुन: दोहराया कि चाहे जो भी हो जाए वह एम० ए० जरूर करेगा।

कठिन शब्दार्थ

कमख़ाब - कढ़ाईयुक्त बहुमूल्य कपड़ा
हिकारत से - घृणा से
हस्ब मामूल - आदत के अनुसार
भटियारखाना - सराया
दुभाँति - भेद-भाव
निरुद्‌विग्न - अविचलित
प्रारब्ध - भाग्य
हुलस पड़ी - प्रसन्न हो गई
उमगकर - खुश होकर
विद्रूप से - ताना मारते हुए
काँतर - बहुत से पैरों वाला   रेंगने वाला एक कीड़ा

 चार
दूसरे दिन दिवाकर के यहाँ जाने पर समर पाता है कि जिस सज्जन व्यक्ति से उसकी मुलाकात रोज़गार कार्यालय में हुई थी, वह दिवाकर के घर पर मौजूद हैं। उनका नाम शिरीष है और वे दिवाकर के चचेरे भाई हैं। वे वहाँ अपनी बहन का इलाज करवाने आए हैं। शिरीष प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति हैं। देश की वर्तमान दशा, नेताओं की स्वार्थपरता, जनता का अंधविश्वास, रूढ़िवादी हिन्दू धर्म, आध्यात्मिक शांति का ढोंग आदि विषयों पर समर और दिवाकर के बीच गरमा-गरम बहस होती है। शिरीष के तर्कों तथा शब्दों में तीखापन है तथा स्पष्टवादिता उनकी विशेषता है। समर को पहली बार अहसास हुआ कि उसका ज्ञान कितना कम और कच्चा है, उसके सोचने का तरीका अनुभव रहित है। समर दिवाकर से कहता है कि उसके लिए नौकरी की कोई व्यवस्था कर दे ताकि वह आगे की पढ़ाई भी कर सके और घर की आर्थिक मदद भी।
कठिन शब्दार्थ
क्षोभ - क्रोध
इलहाम हुआ - ज्ञान हुआ
बर्राने लगती है - बड़बड़ाने लगती है
हिन्दू कोड बिल - हिन्दू समाज के विवाह, उत्तराधिकार आदि विषयों के परम्परागत नियमों में परिवर्तन के प्रस्ताव
अमानुषिक यातना - अमानवीय कष्ट
दंभ - घमंड
अनुनय - विनम्रता
सकुचाना - शरमाना

पाँच
दिवाकर के घर से वापस आकर समर पार्क में जाकर चुपचाप बैठ गया। उसे अपना घर नरक के समान प्रतीत होता है। घर पर अमर रोटी खाते समय प्रभा से घी माँगता है। प्रभा के कहने पर की घी खत्म हो गया है, अमर ने उलाहना दिया कि सारा घी तो समर भैया को खिला देती  हो। इस बात पर समर अमर को डाँटता है और उसकी पीठ पर लात मारता है। अम्मा ने सुना तो समर को खूब बुरा-भला कहा। समर प्रभा का पक्ष लेते हुए कहता है कि भाभी रानी है और प्रभा दासी। भाभी ने प्रतिक्रिया में अपनी बच्ची को चारपाई पर पटका और खुद रोटी बनाने लगी। समर घर से निकलकर पार्क में चला गया। उसी समय उसे उसने देखा कि दरोगा जी ने अपने प्यारे घोड़े को गोली मार दी क्योंकि वह बीमार था और दर्द से तड़प रहा था।  समर देर रात  घर लौटा। प्रभा ने खाना नहीं खाया था और वह समर की प्रतीक्षा कर रही थी।

                                              कठिन शब्दार्थ
                                निर्निमेष - बिना पलक झपकाए
                                    उद्‌धत भाव से - अभद्रता से
                            पौली - घर के प्रवेश द्‌वार वाला कमरा
  फूलंदे रानी से - अपनी प्रियतमा से
     कुन्द - संज्ञाहीन

छह
समर को दिवाकर ने अपने पिताजी के दोस्त की प्रेस में नौकरी दिला दी थी। उसे सबेरे पाँच बजे से ग्यारह बजे तक प्रूफ़-रीडिंग का कार्य करना था। तनख्वाह 75 रुपए थी। समर ने दिवाकर से बीस रुपए उधार माँगे ताकि वह प्रभा के लिए नई धोती खरीद सके। दिवाकर के घर से लौटते समय दरवाज़े पर शिरीष भाई से मुलाकात हुई। उनदोनों में भारतीय संस्कृति की सर्वश्रेष्ठता पर चर्चा होने लगी। समर ने प्रभा के लिए धोती खरीदी लेकिन संकोचवश अम्मा को दे दी ताकि अम्मा खुद ही प्रभा को दे दें लेकिन कुँवर के यह बताने पर कि समर ने धोती प्रभा के लिए खरीदी है, अम्मा ने प्रभा को देने के लिए समर को वापस लौटा दी।
प्रभा नौकरी मिलने की सूचना सुनकर अत्यंत प्रसन्न हो गई और दोनों सुखद और उज्ज्वल भविष्य की कल्पना में खो गए।
कठिन शब्दार्थ
उद्‌धार - छुटकारा
कूढ़मगज - जिसके दिमाग में कूढ़ा भरा हो
हतप्रभ हो उठा - आत्मविश्वास खो दिया
कुम्भीपाक - एक प्रकार का नरक
स्थित-प्रज्ञता - वह स्थिति जिसमें व्यक्ति सुख-दुख को समान भाव से देखता हुआ अविचलित रहता है
भर्त्सना - आलोचना
शंबूक - एक शूद्र जिसका राम ने वध किया
प्रशस्ति - प्रशंसा
सिरमौर - सम्राट
खत्ती - अनाज जमा करने का पकी मिट्‌टी का बर्तन
 
सात
समर के नौकरी की बात सुनते ही घर के सभी लोग समर तथा प्रभा के प्रति उदार हो जाते हैं। समर ज्यादा प्रसन्न नहीं था क्योंकि उसके लिए पचहत्तर रुपए बहुत कम और खर्चे बहुत ज्यादा। समर नौकरी पर जाने लगता है। इसके लिए प्रभा को सुबह जल्दी उठना पड़ता है। समर बिना टिकट यात्रा करके प्रेस पहुँच जाता है। आरंभ में समर को प्रूफ़-रीडिंग का काम अरुचिकर लगता है। फिर धीरे-धीरे वह उसी में अभ्यस्त हो जाता है। परीक्षा का परिणाम आ जाता है और समर सेकेंड डिवीजन में पास हो जाता है किन्तु अमर फेल हो जाता है। समर कॉलेज में दाखिला लेकर घरवालों का कोप-भाजन बनता है। प्रभा पर बहुत बोझ पड़ने लगता है। समर चाहता है कि प्रभा उसके लिए रात में ही खाना बनाकर रख दिया करे। परन्तु प्रभा को यह स्वीकार नहीं था। वह उसे ताज़ा खाना बनाकर देती है।
कठिन शब्दार्थ
आफत - मुसीबत
परिहास - हँसी-मजाक
सांत्वना - दिलासा
गदगद - खुश

आठ
एक दिन शाम को जब समर घर पहुँचा तो पता चला कि अमर के विवाह की बातें चल रही हैं और एक बार समर के मामा ही मध्यस्थ थे। उसने अमर के विवाह का विरोध किया। ठाकुर साहब समर पर उबल पड़े। प्रभा के माध्यम से समर को पता चला कि घर में समर की तनख्वाह की बात चल रही है। समर ने बताया कि प्रेस मैनेजर ने अभी तक तनख्वाह नहीं दिए हैं। समर दुखी होकर बाहर टहलने निकल पड़ता है। सड़क पर उसकी मुलाकात दिवाकर और शिरीष भाई से होती है। समर अपनी समस्या उनलोगों के सामने रखी। शिरीष भाई संयुक्त परिवार व्यवस्था का विरोध करते हैं और समर को अपनी पत्नी के साथ अलग रहने की सलाह देते हैं। समर अनिश्चय की स्थिति में बना रहता है।
 
कठिन शब्दार्थ
 
निर्जीव - जिसमें जान न हो
अनिच्छा - बिना इच्छा के
दियासलाई - माचिस
तटस्थ - किसी का पक्ष न लेना
तकदीर - किस्मत
नास्तिक - ईश्वर को न मानने वाला
धृष्टता - दुष्टता का भाव
 
नौ
उसी रात एक और घटना घटी। समर छत पर लेटा हुआ शिरीष के सुझावों पर चिन्तन कर रहा था। इसी बीच प्रभा सज-धज कर वहाँ आती है और समर के पैर दबाने लगती है। बात-बात में प्रभा ने बताया कि उसने आज व्रत रखा है। इस पर समर क्रोधित हो जाता है लेकिन प्रभा के रोने पर उसका मन द्रवित हो उठता है। दोनों सो जाते हैं। रात के डेढ़ बजे भाभी की बच्ची के रोने पर दोनों उठ जाते हैं। समर प्रभा से शिरीष के विषय में बात करने लगता है किन्तु प्रभा समर की बातें सुनते-सुनते सो जाती है। जब प्रभा को जगाने के लिए समर उसे गुदगुदी देता है तब उसके हाथ में प्रभा के कमर में बँधी एक सुपारी आ जाती है। प्रभा डरकर बताती है यह ताबीज़ समर की माँ ने बाँझपन दूर करने के लिए दिया है। समर फिर क्रोधित हो जाता है और एक झटके से ताबीज़ को तोड़कर गली में फेंक देता है। प्रभा रोती है।
शब्दार्थ
 
सांझ - शाम
कोठरी - कमरा
अवचेतन - जिसमें चेतना न हो
याचना - प्रार्थना
अपलक - बिना पलक झपकाए
गरिमा - महत्ता
निष्फल - व्यर्थ
 
दस
समर ने प्रभा से क्षमा माँगी। उसने प्रभा को बताया कि उसकी नौकरी छूट गई। इसे सुनकर प्रभा चौंक पड़ी। अम्मा ने प्रभा को नीचे चूड़ियाँ पहनने के लिए बुलाया। समर ने प्रभा को मना किया। भाभी और अम्मा की जिद पर प्रभा को विवश होकर चूड़ियाँ पहननी पड़ी। समर ने क्रोध में आकर प्रभा की दोनों कलाइयाँ पकड़ कर आपस में बजा दी। कुछ टुकड़े समर के हाथों में तथा प्रभा की कलाई में चुभ गए।
जब रात में ठाकुर साहब ने समर से तनख्वाह के विषय में पूछा तो समर ने बताया कि उसकी नौकरी छूट गई। समर और ठाकुर साहब में बहस शुरू हो गई और ठाकुर साहब ने क्रोध में आकर समर की पिटाई कर दी। समर ने घर छोड़ देने की कसम खाई। प्रभा ने समर को सुबह चार बजे जगाया और उसे प्रेस जाने की याद दिलाई। समर को घर छोड़ने की बात याद आई। वह नीचे उतरा रहा था कि उसी समय उसे तार मिला कि मुन्नी मर गई। इसी बीच बड़े भाई साहब और पिताजी भी बाहर आए। उनके हाथ में तार देकर समर वहाँ से चला गया। ट्रेन से उतरने के बाद उसके मन में विचार उठने लगे।
"कूद पड़...चढ़ जा...कूद पड़...चढ़ जा...! उसने घबराकर ऊपर देखा...सारा आकाश डग-डग करता घूमने लगा था।"
 
कठिन शब्दार्थ
 
गुमसुम - उदास
आर्द्रता - गीलापन
दर्दीला - दर्द से भरी हुई
मनहारिन - चूड़ी बेचने वाली
आतंकोत्पादिनी - आतंक या डर उत्पन्न करने वाली
 
 


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