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आदर्श उत्तर - काव्य मंजरी




अँधेरे का दीपक
हरिवंशराय बच्चन

प्रश्न

१. प्रस्तुत कविता में कवि ने 'कमनीय मंदिर' के विषय में क्या कहा है? समझाकर लिखिए।

२. "एक निर्मल स्रोत से, तृष्णा बुझाना कब मना है?" - पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।

३. कवि ने अपने जीवन साथी के विषय में क्या कहा है?

४. "अँधेरे का दीपक" कविता के माध्यम से कवि ने क्या संदेश देना चाहा है?

उत्तर


1.      प्रकृति में विनाश और निर्माण निरंतर चलता रहता है, इसलिए इन परिवर्तनों से घबराने की आवश्यकता नहीं है। अँधेरी रात में दीया जलाने की मनाही नहीं है। कवि कहते हैं कि मनुष्य कल्पना के सहारे अपने सुंदर भवन का निर्माण करता है। अपनी भावना के सहारे उसे विस्तारित करता है। अपने स्वप्न-करों से उसे सजाता-सँवारता है। अपने सुंदर भवन को स्वर्ग के दुर्लभ व अनुपम रंगों से सजाता है। यदि वह कमनीय मंदिर ढह जाए तो दोबारा ईंट, पत्थर, कंकड़ आदि जोड़कर शांति की कुटिया बनाने की मनाही तो नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि कल्पनाओं का संसार छिन्न-भिन्न हो जाने पर, सपने टूट जाने पर इनसान को निराश या हताश होने की बजाय आशावादी बनना चाहिए।


2.     कवि ने मानव में आशावादी स्वर का संचार करते हुए कहा है कि यदि नीले आसमान के गहरे रंग का अत्यंत बहुमूल्य और सुंदर मधुपात्र जिसमें ऊषा की किरण समान लालिमा जैसी लाल मदिरा नव-घन में चमकने वाली बिजली के समान छलका करती थी। यदि वह मधुपात्र टूट जाए तो निराश होने की क्या जरूरत है, बल्कि अपनी हथेली की अंजुलि बनाकर प्यास बुझाने की मनाही तो नहीं है। अर्थात्‌ विनाश प्रकृति का शाश्वत नियम है और जो बना है, वह नष्ट भी होगा।

3.      “अँधेरे का दीपक” कविता कवि ने अपनी पत्नी श्यामा की मृत्यु के दुख से उबरने के पश्चात लिखा था जिसमें कवि ने अपनी जीवन-संगिनी के साथ बिताए आनंद और ल्लास के पलों का वर्णन किया है। कवि कहते हैं कि जब उनकी पत्नी जीवित थी उस समय कोई चिन्ता नहीं थी। दिन रंग-बिरंगे पलों में व्यतीत हो रहे थे। कालिमा अर्थात्‌ निराशा का भाव जीवन को छू भी नहीं गया था। दुखों की छाया भी पलकों पर कभी दिखाई नहीं दी। उनकी निर्मल हँसी को देखकर बादल भी शर्मा जाते थे अर्थात्‌ जीवन में दुख के बादल कभी नहीं छाएलेकिन उनकी पत्नी के देहांत के साथ-साथ ही कवि के जीवन की सारी खुशियाँ भी चली गईं। समय गतिशील है। दुख के क्षणों में यदि मुस्कराया जाए तो देख झेलना बहुत आसान हो जाता है।

4.      हरिवंशराय बच्चन ने “अँधेरे का दीपक” के माध्यम से मानव-जीवन में आशावादी एवं सकारात्मक दृष्टिकोण के महत्त्व को प्रतिपादित करने के कोशिश की है। कवि के अनुसार मानव-जीवन में सुख-दुख आते-जाते रहते हैं। किसी दुख से घबराकर पूर्णत: निराश होकर बैठ जाना अनुचित है। प्रकृति हमें आशावाद का संदेश देती है। हर अँधेरी रात कालिमा से भरी होती है लेकिन इनसान के पास दीया जलाकर रोशनी फैलाने का अधिकार है, अर्थात्‌ जीवन के दुख से बाहर आकर सुख प्राप्त करने की आशा सदैव बनी रहती है।



  
 

उद्‌यमी नर
रामधारी सिंह दिनकर


रामधारी सिंह दिनकर द्‌वारा रचित कविता ’उद्‌यमी नर’ में श्रम की महत्ता को प्रतिष्ठित किया गया है – उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उद्‌यमी नर शीर्षक कविता हिन्दी के राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर द्‌वारा रचित एक उद्‌बोधनात्मक एवं प्रेरणादायक कविता है जो मानव को निरंतर कर्म करते रहने की प्रेरणा देती है। दिनकर जी की रचनाओं में राष्ट्रीयता, भारत के गौरवशाली इतिहास का वर्णन, क्रांतिकारी चेतना तथा मानवीय भावों की अभिव्यक्ति हुई है। इन्हें साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ आदि साहित्यिक पुरस्कारों तथा पद्‌म भूषण से सम्मानित किया गया है। दिनकर की भाषा में तत्सम शब्दों की अधिकता है।
प्रमुख रचनाएँ – रेणुका, हुंकार, कुरुक्षेत्र, उर्वशी, रश्मिरथी आदि।
प्रस्तुत कविता में कवि ने मानव जीवन में कर्म को महत्त्व देते हुए भाग्यवाद की आलोचना की है। उनका मानना है कि जीवन में नियतिवादी दृष्टिकोण अर्थात भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाला व्यक्ति सदैव असफल होता है। जिस व्यक्ति को अपने श्रम और अपने मेहनती बाहों पर भरोसा नहीं वह उन्न्ति के मार्ग पर कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता। प्रकृति के कोश में अनंत धन-संपत्ति छिपी है जिसका इच्छानुसार उपभोग कर सभी नर-नारी अपने जीवन को सुखमय बना सकते हैं।
इतना कुछ है भरा विभव का, कोष प्रकृति के भीतर,
निज इच्छित सुख-भोग, सहज ही पा सकते नारी-नर।

ईश्वर ने सभी तत्त्वों को आवरण के नीचे छिपाकर रख दिया है जिन्हें मेहनती और उद्‌यमी मनुष्य अपने कड़े परिश्रम से खोज निकालता है। कवि के कहने का आशय यह है कि परिश्रमी व्यक्ति इस बात को स्वीकार नहीं करता है कि ब्रह्‌मा ने उसके भाग्य को लिखा है बल्कि उसका यह मानना है कि इस संसार में वह जो कुछ भी प्राप्त करेगा उसमें सिर्फ़ उसका अपना अथक परिश्रम और भुजबल होगा।
ब्रह्‌मा से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है,
अपना सुख उसने अपने भुजबल से ही पाया है।
कवि का मानना है कि प्रकृति कभी भाग्य के बल से डरकर नहीं झुकती। वह सदा परिश्रम करने वालों से भयभीत रहती है। जब एक मेहनती व्यक्ति अपना पसीना बहाता है तब उसके सम्मुख प्रकृति को भी अपनी हार स्वीकार करनी पड़ती है। एक दशरथ दास ने सिर्फ़ हथौड़ी के बल पर पहाड़ का सीना चीरकर रास्ता बना दिया था और विशालकाय अटल पहाड़ को भी उस मेहनती इनसान के सामने अपना शिश झुकाना पड़ा था। कवि का कहना है कि उद्‌यमी मनुष्य अपना पसीना बहाकर अपने दुर्भाग्य को भी बदलने की हिम्मत रखता है।
ब्रह्‌मा का अभिलेख पढ़ा करते निरुद्‌यमी प्राणी,
धोते वीर कुअंक भाल का बहा भ्रुवों से पानी।
कवि ने पूँजीवादी व्यवस्था के सबसे बड़े अस्त्र के रूप में भायवाद को माना है। समाज का कुछ धनी वर्ग भाग्यवाद का सहारा लेकर निर्धन वर्ग का शोषण करते हैं और उनके मेहनत के फल पर अधिकार कर लेते हैं। कवि इन भाग्यवादियों से प्रश्न करते हैं कि यदि भाग्य का लिखा हुआ इतना शक्तिशाली और अमिट है तो यह धरती अपने सारे रत्न स्वयं ही इन भाग्यवादियों के चरण पर क्यों नही अर्पित कर देती है।
पूछो किसी भाग्यवादी से, यदि विधि-अंक प्रबल है,
पद पर क्यों देती न स्वयं वसुधा निज रतन उगल है?
कवि कहते हैं कि मानव-समाज का यदि कुछ भाग्य है तो वह है भुजाओं की अपार शक्ति। मानव के इसी शक्ति के सम्मुख पृथ्वी और आकाश झुकते हैं। कवि कहते हैं कि जिसने भी परिश्रम किया है उसे पीछे मत रहने दो। उस मेहनती व्यक्ति को उसके परिश्रम का सुख भोगने दो। कहने का तात्पर्य यह है कि इस धरती पर जो मेहनत करता है उसे हाशिए पर मत छोड़ो बल्कि उसे मानव-सभ्यता के केन्द्र में लेकर आओ ताकि मानव-समाज में श्रम की प्रतिष्ठा को स्थापित किया जा सके।
निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि उद्‌यमी नर कविता के माध्यम से कवि ने समाज के शोषक-वर्ग को सचेत किया है कि भाग्यवाद का सहारा लेकर मेहनतकशों का शोषण करना बंद करे और किसान-मज़दूरों को उनके मेहनत का फल प्राप्त करने दे।





बादल को घिरते देखा है
नागार्जुन

अवतरणों पर आधारित प्रश्नोत्तर

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णिम शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर,
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

प्रश्न:

(i)  कवि और कविता का नाम लिखकर बताएँ कि कवि किस काल की
      किस धारा के कवि हैं?
(ii) प्रस्तुत कविता का मूल आधार क्या है?
(iii) कवि ने किस सुप्रभात का वर्णन किया है?
(iv) बेबस चकवा-चकई का संदर्भ क्यों उठाया गया है? कविता के प्रसंग में
       स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:



(i)  कवि का नाम नागार्जुन तथा कविता का नाम 'बादल को घिरते देखा

है'| कवि नागार्जुन आधुनिक काल की जनवादी काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं।



(ii) प्रस्तुत कविता का मूल आधार प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण है। कवि ने चित्रात्मक भाषा में हिमालय पर्वत तथा बादलों के घिरने के वातावरण के साथ-साथ प्राकृतिक परिवर्तनों का अत्यंत हृदयग्राही चित्रण किया गया है।



(iii) कवि ने  वसंत ऋतु के सुप्रभात का वर्णन किया है। इस समय मंद-मंद वायु बहती है। पर्वत की चोटियों पर बालरुण रूपी सूर्य की किरणें पड़ रही होती हैं। यह छटा अत्यंत मनोरम दिखाई देती है और कवि-हृदय को आकर्षित करती है।


(iv) कवि नागार्जुन ने चकवा-चकई का उल्लेख वियोग और मिलन के संदर्भ में किया है। चकवा सुनहरे रंग का पक्षी है जो प्रति वर्ष जाड़ों के प्रारंभ में हमारे देश में उत्तर की ओर से आकर प्रवास करता है और जाड़ा समाप्त  होते ही फिर उसी ओर लौट जाता है। चकवा-चकई का प्रयोग भारतीय प्राचीन काव्यों में परस्पर निष्ठा और प्रेम जैसी चारित्रिक विशेषता के संदर्भ में हुआ है। चकवा-चकई का जोड़ा दिन में तो प्रेमपूर्वक साथ साथ विचरते हें किंतु सूर्यास्त के बाद बिछुड़ जाते हैं ओर रात भर अलग रहते हैं और वियोग में क्रंदन करते हैं लेकिन सूर्योदय के साथ ही इनका वियोग समाप्त हो जाता है और मिलन की बेला आती है। प्रात:काल यह जोड़ा सरवर के निकट हरी शैवाल पर एक-दूसरे से प्रणय निवेदन करता है। कवि के अनुसार हिमालय के प्राकृतिक सौन्दर्य में चकवा-चकई का प्रणय-कलह अत्यंत मनोहर प्रतीत होता है।




नदी के द्‌वीप

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"

प्रश्न 

नदी के द्‌वीप शीर्षक कविता के प्रतीकों को स्पष्ट करते हुए उनके पारस्परिक संबंधों पर अपने विचार लिखिए।

उत्तर


सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" को प्रतिभासम्पन्न कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना जाता है। बी.एस.सी. करके अँग्रेजी में एम.ए. करते समय क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़कर बम बनाते हुए पकडे गये और वहाँ से फरार भी हो गए। सन् 1930 ई. के अन्त में पकड़ लिये गये। अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। "आँगन के पार द्‌वार" पर सन्‌ 1964 में इन्हें साहित्य अकादमी के पुरस्कार तथा 1978 में " कितनी नावों में कितनी बार" पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इन्होंने अनेक वर्षों तक दैनिक नवभारते टाइम्स का संपादन किया। इनकी रचनाओं में दार्शनिकता और चिंतन को विशेष महत्त्व दिया गया है। इनकी भाषा सहज है जिसमें तत्सम एवं नए मुहावरों का भरपूर प्रयोग किया गया है।

प्रमुख रचनाएँ - हरी घास पर क्षण भर, इत्यलम, बावरा अहेरी, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, सागर मुद्रा आदि।


नदी के द्‌वीप अज्ञेय द्‌वारा लिखी गई हिन्दी की श्रेष्ठ प्रतीकात्मक कविता है जिसमें कवि ने नदी, द्‌वीप,  भूखंड के द्‌वारा व्यक्ति, परम्परा और समाज के पारस्परिक संबंधों को समझने की कोशिश की है। प्रस्तुत कविता में प्रतीकों के माध्यम से विचार को संप्रेषित किया गया है। विचार प्रतीकों में ढाले गए हैं-

द्वीप = व्यक्तित्व = शिशु

नदी = संस्कृति/परंपरा = माँ

भूखण्ड = समाज = पिता

कविता में आए प्रतीकों के दो-दो अर्थ हैं-एक प्राकृतिक है (द्वीप, नदी, भूखण्ड) और दूसरा मानवीय( शिशु , माँ, पिता) और ये दोनों मिलकर प्रकृति और मनुष्य के अविभाज्य सृष्टि-संबंध को अभिव्यक्त करते हैं।

नदी जिस तरह द्वीप के उभार, सैकत-कूल को गढ़ती है,उसके बाहरी और भीतरी रूपाकारों को गढ़ती है, संस्कृति वैसे ही व्यक्तित्व की रूपरेखा, चाल-चलन , चरित्र और मानवीय मूल्य-बोध को गढ़ती है।

कवि के शब्दों में-

                  हम नदी के द्‌वीप हैं
                  हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
                  वह हमें आकार देती है।
                  हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल
                  सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।

माँ बच्चे को नहलाती-धुलाती है, कपडे पहनाती है, बदन की मालिश करती है, दूध पिलाती है और इस तरह उसके शरीर को गर्भ के बाहर भी गढ़ती और आकार देती है। दूसरी ओर वह उसकी पहली शिक्षिका होती है जो उसे नीति का, जीवन मूल्यों का, प्यार, विश्वासों और मान्यताओं का संस्कार देती है, उसके मन को गढती है। संस्कृति भी व्यक्तित्व का विकास इसी तरह से करती है। लेकिन जिस तरह शिशु माँ के गर्भ से निकलकर स्वतंत्र अस्तित्व हासिल करता है, बचपन, यौवन और वयस्कता की सीढियाँ चढते हुए माँ से अलग अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित करता है, उसी तरह व्यक्ति भी संस्कृति या परम्परा से रूप-आकार और संस्कार पाने के बावजूद मूलत: स्वतंत्र अस्तित्व रखता है।

कवि के अनुसार संस्कृति के प्रति समर्पण और स्वतंत्र अस्तित्व का बोध ही व्यक्तित्व का निर्माण करता है। व्यक्ति उस संस्कृति या परम्परा में बहता नहीं। ऐसा करने से वह रेत बन जाएगा। रेत के कण की कोई अलग पहचान नहीं होती। व्यक्ति की पहचान ही मिट जाएगी। व्यक्ति के पैर उखड़ जाएँगे और उसका अस्तित्व परम्परा की बाढ़ में बह जाएगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति का संस्कृति या परम्परा के प्रति कोई योगदान नहीं रहेगा। व्यक्ति परम्परा रूपी नदी के पानी में रेत के रूप में मिलकर उसे गंदला ही करेगा।
कवि यह इनकार नहीं करता कि भूखण्ड (समाज/पिता) से द्वीप (व्यक्ति/शिशु ) का रिश्ता है, लेकिन यह रिश्ता अप्रत्यक्ष है, औपचारिक है, दूरस्थ है, कम आत्मीय है, ज़रूरत भर का है. सचमुच द्वीप से भूखण्ड दूर ही होता है और नदी ही दोनों को मिलाती है, उसी तरह जैसे माँ ही बच्चे को पिता का बोध कराती है। शिशु पैदा होने के साथ माँ पर ही निर्भर है अपनी मूलभूत  ज़रूरतों के लिए। यदि माँ न बताए तो शिशु प्रामाणिक तौर पर नहीं जान सकता कि उसका पिता कौन है। अज्ञेय इस कविता में व्यक्ति, समाज और संस्कृति का ऐसा ही संबंध देखते हैं। व्यक्ति के लिए संस्कृति आंतरिक है, उसकी जीवनी शक्ति है जबकि समाज  बाहरी है, जो सिर्फ़ जीने का साधन मुहैया कराता है।
कवि के शब्दों में -
                    द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप. यह अपनी नियती है.
                    हम नदी के पुत्र हैं. बैठे नदी की क्रोड में.
                    वह वृहत भूखंड से हम को मिलाती है.
                    और वह भूखंड अपना पितर है।


अत: निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि "नदी के द्‌वीप" एक प्रतीकात्मक कविता है जिसमें व्यक्ति, परम्परा और समाज को क्रमश: द्‌वीप, नदी एवं भूखंड से जोड़ा गया है।




बाललीला

सूरदास

प्रश्न

सूरदास जी बाल स्वभाव के अनूठे पारखी हैं। अपने पाठ के पदों के आधार पर इस कथन की समीक्षा कीजिए।

उत्तर

महाकवि सूर को बाल-प्रकृति तथा बालसुलभ चित्रणों की दृष्टि से विश्व में अद्वितीय माना गया हैउनके वात्सल्य वर्णन का कोई साम्य नहीं, वह अनूठा और बेजोड हैबालकों की प्रवृति और मनोविज्ञान का जितना सूक्ष्म व स्वाभाविक वर्णन सूरदास जी ने किया है वह हिन्दी के किसी अन्य कवि या अन्य भाषाओं के किसी कवि ने नहीं किया है। सूर के वात्सल्य वर्णन में यद्यपि उनके विष्णु अवतार होने की झलके तो अवश्य मिलती है, तथापि ये वर्णन किसी भी माँ के अपने पुत्र के प्रति वात्सल्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि  सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। सूरदास भक्तिकाल के सगुण भक्ति धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। गुरु वल्लभाचार्य ने इन्हें कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया।
सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं:
(१) सूरसागर - जो सूरदास की प्रसिद्‌ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं।
(२) सूरसारावली
(३) साहित्य-लहरी - जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं।
(४) नल-दमयन्ती
(५) ब्याहलो

कृष्ण का बचपन ग्रामीण परिवेश में व्यतीत हुआ है जहाँ माता यशोदा  की ममतामयी छाया में कृष्ण का बालपन लीलाओं से भरा पड़ा है। पहले पद में सूरदास कहते हैं कि हाथ में मक्खन लेकर कृष्ण घुटने के बल चलते हैं। उनका सम्पूर्ण शरीर धूल से सना हुआ है। मुख पर दही का लेप लगा हुआ है। धूल, दही और मक्खन से सने कृष्ण अत्यंत मनमोहक लग रहे हैं। कृष्ण के गाल बड़े सुंदर हैं, उनकी आँखें चंचल हैं और माथे पर गोरोचन का तिलक लगा हुआ है। उनके मुख पर लटकते हुए घुँघराले बालों की लटों को देखकर ऐसा लगता है जैसे खिले हुए पुष्प पर भँवरे मँडरा रहे हों और कृष्ण के सौन्दर्य रूपी रस का पान कर मंत्र-मुग्ध हो रहे हों। माता यशोदा को अपने लाडले पर बड़ा नाज है, सो बड़ी चिन्तित रहती है कि उसे किसी की नज़र ना लग जाएयही कारण है कि जब एक दिन माँ की गोद में अलसाते कान्हा ने जोर की जम्हाई लेकर अपने मुख में तीनों लोकों के दर्शन करवा दिये तो माँ डर गई और उनका हाथ ज्योतिषियों को दिखाया और बघनखे का तावीज गले में डाल दिया। सूरदास कहते हैं कि कृष्ण के इस सौंदर्य को एक क्षण के लिये देखने भर का सुख भी सौ कल्पों के सुख से भी बहुत बड़ा है।

एक उदाहरण दृष्टव्य है -

शोभित कर नवनीत लिए। 

घुटुरुन चलत रेनु-तन-मंडित, मुख दधि-लेप किए।

चारु कपोल लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए।

लट लटकनि मनु मत्त मधुप-गन, मादक मधुहिं पिए।

कंठुला कंठ, व्रज केहरि-नख, राजत रुधिर हिए। 

धन्य सूर एको पल इहिं सुख, का सत कल्प जिए।


दूसरे पद में सूरदास कहते हैं कि कृष्ण थोड़े बड़े हो गए हैं। वे पैदल चलने लगे हैं। उन्हें थोड़ा-थोड़ा बोलना भी आ गया है। बाल कृष्ण माता यशोदा को  मैया-मैया कहकर पुकारते हैं और आदरणीय नन्द बाबा को बाबा-बाबा कहना सीख गए हैं। कृष्ण बड़े भाई बलराम को भैया कहते हैं। कृष्ण के मुख से अपने लिए प्यार-भरे रिश्ते का संबोधन सभी को प्रसन्न कर देता है। यशोदा ऊँचे स्थान पर चढ़कर कन्हैया को पुकारती हैं और उन्हें निर्देश देती है हैं - बेटा, ज़्यादा दूर तक खेलने मत जाओ क्योंकि किसी की भी गाय तुम्हें चोट पहुँचा सकती है। यह माँ का अपने पुत्र के प्रति अपार स्नेह और चिन्तित होने का भाव है। गोपी और ग्वाले  कृष्ण की नई-नई क्रियाओं को देखने के लिए इच्छुक रहते हैं। कृष्ण की बाल-सुलभ चेष्टाओं को देखकर पूरे ब्रज में अपूर्व खुशी का वातावरण छा गया है। कृष्ण के चलना सीखने की खुशी सिर्फ़ यशोदा माता को ही नहीं बल्कि पूरे ब्रज को है। घर-घर में स्त्रियां बधाई गाकर अपनी खुशी अभिव्यक्त कर रही है। सूरदास कहते हैं कि हे प्रभु! मैं तुम्हारे उन चरणों की बलिहारी जाता हूँ जिन्होंने तुम्हारे दर्शन करवाए।


कवि के शब्दों में -


गोपी ग्वाल करत कौतूहल, घर-घर बजती बधैया।

सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौं, चरननि की बलि जैया॥

सूरदास तीसरे पद में कहते हैं कि कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम और दूसरे ग्वाल-बालों द्‌वारा उनका उपहास करने की शिकायत माँ यशोदा से करते हैं। बलराम बडे हैं और वे कृष्ण को ये कहके चिढ़ाते रहते हैं कि तुम माता यशोदा के पुत्र नहीं तुम्हें मोल लिया गया हैअपने कथन को सिद्‌ध करने के लिये वे तर्क भी देते हैं कि बाबा नंद भी गोरे हैं, माता यशोदा भी गोरी हैं तो तुम साँवले क्यों हो? अत: तुम माता यशोदा के पुत्र कैसे हो सकते हो? बलराम के कहने पर सभी ग्वाल-सखा बालक कृष्ण को चिढ़ाते हैं। कृष्ण माता यशोदा से कहते हैं कि तू भी मुझे ही मारती है, दाऊ के ऊपर कभी गुस्सा नहीं करती हो। कृष्ण माता यशोदा को उलाहना देते हुए कहते हैं -
तू मोहि को मारन सीखी, दाउहिं कबहु न खीझै।
बालक कृष्ण के मुख से गुस्से से भरी बातें सुनकर माता यशोदा मन ही मन रीझ जाती है और कृष्ण को सांत्वना देते हुए कहती हैं-
सुनहु कान्ह बलभ्रद चबाई, जनमत ही को धूत।
सूर स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत।
अर्थात्‌ हे कान्हा, सुनो, यह बलराम बहुत बातूनी और बचपन से ही धूर्त है। मैं गोधन की सौगंध खाकर कहती हूँ कि मैं तेरी माता हूँ और तुम मेरे पुत्र हो।
निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि सूरदास ने कृष्ण के बाल रूप का अत्यंत स्वाभाविक और हृदयग्राही चित्रण किया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसी बात को निर्मुक्त भाव से स्वीकार करते हुए कहा है –“बाल–चेष्ठा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना बड़ा भण्डार और कहीं नहीं है ,जितना बड़ा सूरसागर में है।  

अँधेरे का दीपक

हरिवंशराय ’बच्चन’

प्रश्न

’अँधेरे का दीपक’ कविता में बच्चन जी का आस्थावादी स्वर मुखरित हुआ है। उदाहरण द्‌वारा समझाइए।

उत्तर

हरिवंशराय ’बच्चन’  आधुनिक हिन्दी कविता में आस्थावादी कवि हैं जिन्होंने जीवन संघर्ष से कभी हार नहीं मानी। इन्होंने अपनी रचनाओं के द्‌वारा मानव पीड़ा और उसके दुख-दर्द को आवाज़ दी।
हरिवंशराय ’बच्चन’ ने इलाहाबाद विश्वविद्‌यालय से 1938 में अंग्रेज़ी में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण तथा उन्होंने कैम्ब्रेज विश्वविद्‌यालय, इंग्लैंड से पी०एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। बच्चन जी ने 13 वर्ष की अल्पायु से ही काव्य रचना आरम्भ कर दी थी। काव्य में उनकी लोकप्रियता "मधुशाला" के प्रकाशन के बाद हुई। "मधुशाला" में इन्होंने सभी जातियों और धर्मों की एकता की घोषणा की है, साथ ही सामाजिक विषमताओं पर करारा व्यंग्य किया है। "मधुशाला" की पंक्तियाँ हैं -
                                                             मुसलमान और हिन्दू दो हैं,
                                                             एक मगर उनका प्याला,
                                                             एक मगर उनका मदिरालय,
                                                             एक मगर उनकी हाला,
                                                             दोनों रहते एक न जब तक,
                                                             मंदिर, मस्जिद में जाते ,
                                                             बैर बढ़ाते मंदिर, मस्जिद,
                                                             मेल कराती मधुशाला ।
1976 में इन्हें पद्‌म भूषण से सम्मानित किया गया। "दो चट्‌टानें" नामक रचना पर इन्हें साहित्य अकादमी से भी पुरस्कृत किया गया।
बच्चन जी की भाषा शुद्‌ध खड़ी बोली है। भाषा सहज, स्पष्ट और मार्मिक है। जीवन में गहरे से गहरे भाव की सहज अभिव्यक्ति उनकी काव्य भाषा की मुख्य विशेषता है।
इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं - मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, सतरंगिणी, यामिनी, बुद्‌ध और नाचघर आदि।

प्रकृति के सभी निर्जीव और सजीव नाशवान हैं। सृजन, चिन्तन और संहार प्रकृति का शाश्वत नियम है। प्रकृति के नियम अपरिवर्तनशील हैं। वे हमारे अनुसार संचालित नहीं होते बल्कि हमें उनके साथ समायोजन करना पड़ता है। कवि ने ’अँधेरे का दीपक’ कविता में आस्थावादी और आशावादी स्वर का संचार किया है। कवि ने मानव जीवन में सुख और दुख को रेखांकित करते हुए कहा है कि जब सुख के दिन नहीं रहे तो दुख के दिन भी नहीं रहेंगे। अत: मानव को दुख, पीड़ा, कष्ट, पराजय से निराश न होकर उसे स्वीकार करना चाहिए और उसके विरुद्‌ध संघर्ष करते हुए सुख की ओर बढ़ते रहना चाहिए।
 कवि के शब्दों में -
                                         है अँधेरी रात, पर दीवा जलाना कब मना है?
मानव अपनी अतुलनीय कल्पना से सुंदर कमनीय भवन रूपी मंदिर का निर्माण करता है। उसे अपनी भावनाओं से सजाता है। अपनी रुचि के अनुसार उसे सजाता-सँवारता है। उसमें प्रेम और अपनापन का रंग भरता है पर एक दिन प्रकृति का कहर टूटता है और वह आलीशान महल धराशायी हो जाता है। पर कवि निराशा के अँधकार में नहीं डूबना चाहता क्योंकि विध्वंस प्रकृति का नियम है। मनुष्य हर विनाश के बाद फिर से निर्माण करने की हिम्मत रखता है। कवि के शब्दों में -
ढह गया वह तो जुटाकर, ईंट, पत्थर, कंकड़ों को,
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है?
कवि कहते हैं कि जब आप अपने प्रिय साथी से बिछुड़ जाते हैं तब मन को बहुत पीड़ा होती है। उस अलगाव के दर्द को सह पाना बेहद मुश्किल होता है लेकिन मरने वाले के साथ मरा तो नहीं जाता। रिश्तों के खत्म हो जाने पर जीवन तो खत्म नहीं हो जाता। ऐसे समय में यदि मन दूसरा मीत खोजकर उससे अपना मन लगा ले, तो इसमें मनाही नहीं है। नीलम के बने गिलास में ,प्रथम उषा रश्मि के समान लाल मदिरा भरी है। मधुपात्र के टूट जाने पर उसका शोक मनाने से अच्छा है कि अपने दोनों हाथों को जोड़कर अंजलि का निमर्ल स्रोत बनाई जए और उसमें उस मदिरा को भरकर पी लिया जाए। कवि के शब्दों में -
वह अगर टूटा, मिलाकर हाथ दोनों की हथेली,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है?
हरिवंशराय ’बच्चन’ की  मानवतावादी आस्‍था मनुष्‍य की स्‍वतंत्रता और अस्‍मिता को सर्वोपरि मानते हुए, समाज-कल्याण का निरंतर प्रयास करता है। उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से मानव-जीवन में आशा का संचार किया है ताकि मानव-जीवन की पीड़ा को कम किया जा सके। हिन्दी के प्रख्यात कवि अज्ञेय ने लिखा है कि दुख सबको माँजता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में बिना दुख के सुख की आवश्यकता को जाना ही नहीं जा सकता। जब व्यक्ति के जीवन में दुख, पीड़ा, मुश्किल, हताशा बढ़ती है तब उसके व्यक्तित्व का वास्तविक आँकलन किया जा सकता है।


 हमें सुख और दुख दोनों में ही समान भाव रखने चाहिए। दुख में मुस्कराने से दुख कम हो जाता है। जीना आसान हो जाता है। दुख के आगमन पर धैर्य बनाए रखना और जीवन में सुख की निरन्तर खोज करते रहना ही प्रस्तुत कविता का मूल उद्‍देश्य है जिसे कवि हरिवंशराय बच्चन ने सफलतापूर्वक अभिव्यक्त किया है।
 कवि की कविता का मूल विषय है - प्रेम। कवि ने अपने प्रियतम  वियोग के दुख को व्यापक मानवीय संवेदना से जोड़ दिया है। कवि का मानना है कि जीवन में दुख की एक बड़ी भूमिका है। दुख ही मनुष्य के जीवन में निखार लाता है। अत: हमें उससे घबराना नहीं चाहिए । कवि कहते हैं कि जिस प्रकार आँधी चलने से घर उजड़ जाते हैं इसी प्रकार कुछ ऐसी हवाएँ चली कि प्यार का बसा बसाया घर उजड़ गया। उस समय शोर मचाना या रोना कुछ भी काम नहीं देता। प्रकृति के विनाश के सामने मानव एकदम बेबस हो जाता है। कवि कहते हैं कि विध्वंस की शक्ति ने जिसे उजाड़ दिया उसे फिर से बसाना क्या मना है। कवि के शब्दों में -

जो बसे हैं वे उजड़ते हैं, प्रकृति के जड़ नियम से,
पर किसी उजड़े हुए को, फिर बसाना कब मना है?

निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि प्रकृति में सृजन और संहार का नियम चलता रहता है। इन परिवर्तनों से बिना घबराए मुस्कराना कब मना है। जीवन की हर परिस्थिति में आस्थावान बने रहना मानव-सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है।
जाग तुझको दूर जाना

महादेवी वर्मा

प्रश्न

जाग तुझको दूर जाना है – शीर्षक प्रेरणा गीत के माध्यम से कवयित्री ने जीवात्मा रूपी साधक को साधना-पथ पर बढ़ते जाने की प्रेरणा दी है। इस कथन की व्याख्या सोदाहरण कीजिए।


उत्तर

महादेवी वर्मा छायावाद की प्रमुख कवयित्री है जिन्होंने काव्य और गद्‌य दोनों क्षेत्र में अपनी प्रतिभा से प्रसिद्‌धि प्राप्त की है महादेवी वर्मा के काव्य में रहस्यवाद का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है इनकी कविताओं में प्रेम, विरह-वेदना और करुणा की अभिव्यक्ति हुई है इन्हें आधुनिक युग की मीरा भी कहा जाता है

महादेवी वर्मा की भाषा में संस्कृत के शब्दों का अधिक प्रयोग किया गया है जिसमें सहजता, कोमलता और मधुरता है

प्रमुख रचनाएँ - नीहार, रश्मि, नीरजा, दीपशिखा, यामा (ज्ञानपीठ पुरस्कार) आदि इनके काव्य संग्रह हैं

जाग तुझको दूर जाना है – शीर्षक कविता वास्तव में एक प्रेरणा गीत है। इसमें लौकिक के साथ-साथ आध्यात्मिक पक्ष भी उजागर हुआ है। इस गीत के माध्यम से कवयित्री जीवात्मा रूपी पथिक अर्थात्‌ साधक को भक्त-मार्ग (साधना-पथ) पर आगे बढ़ते समय आने वाली बाधाओं के विषय में जानकारी दे रही हैं। उनका विचार है कि जिस प्रकार लौकिक जगत में कोई उद्देश्य लेकर आगे बढ़ने वाले पथिक के मार्ग में कठिनाइयाँ आती हैं, उसी प्रकार की दशा आध्यात्म (भक्ति) में भी पाई जाती है। कवियत्री पथिक के आलस्य की ओर संकेत करती हैं। वे कहती हैं कि पथिक की सदा सचेत रहने वाली आँखों में अज आलस्य क्यों भरा हुआ है ? आज वेशभूषा बी अस्त-व्यस्त क्यों है ? जीव रूपी साधक को परमात्मा से मिलन की लम्बी यात्रा पूरी करनी है। अपनी मंज़िल क ओर बढ़ते हुए चाहे कितन ही बाधाओं का सामना क्यों न करना पड़े, चाहे अडिग रहने वाला हिमालय डोल उठे या सदा शांत रहने वाला अलसाया आकाश प्रलय के आँसू बरसाए अर्थात्‌ भीषण वर्षा करे, चाहे प्रकाश न रहे और चारों ओर घना अंधकार छा जाए या बिजली की भयंकर चमक के साथ तूफान तुझ पर टूट पड़े, पर तुझे निरंतर आगे बढ़ते हुए विनाश और विध्वंस के बीच नव-निर्माण के चिह्न छोड़े जाना है।

एक उद्धरण दृष्टव्य है -

अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कंप हो ले,

या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;

आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,

आज या विद्युत-शिखाओं में निष्ठुर तूफान बोले!

 

कवयित्री जीव रूपी साधक को कहती है कि ये सांसारिक बंधन बहुत आकर्षक लगते हैं, परंतु ये मोम की भाँति कोमल और बलहीन हैं। हे पथिक (साधक) तुमें इन बंधनों को तोड़कर अपने लक्ष्य की ओर अनवरत बढ़ना है। क्या तुझे तितलियों के रंगीन पंखों की तरह सांसारिक सौंदर्य मुग्ध तो नहीं कर लेंगे ? सांसारिक जनों की मीठी-मीठी बातों से भ्रमित भी नहीं होना है, तुम्हें फूलों की तरह सुंदर आँखों में आँसू देखकर द्रवित नहीं होना है, बल्कि सब मोह त्याग कर अपने लक्ष्य तक बढ़ना है। कवयित्री कहती हैं कि कहीं ऐसा न हो कि साधक अपनी छाया से भ्रमित हो जाए और उसी के बंधन में बँध के रह जाए।

महादेव वर्मा जीव रूपी पथिक (साधक) को अपने अज्ञात प्रियतम की ओर बढ़ने की प्रेरणा देते हुए कहती हैं कि वज्र-सा कठोर हृदय आँसुओं के कण में धोने गलाने की आवश्यकता नहीं है। जीवन रूपी अमृत के बदले दो घूँट मदिरा प्राप्त करने का कोई लाभ नहीं। जीव परमात्मा का अंश है। इस नाते वह अमरता को प्राप्त कर सकता है। अमरता का पुत्र मृत्यु को अपने हृदय में क्यों बसाना चाहेगा –

अमरता-सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?

जाग तुझको दूर जाना॥

 

महादेवी वर्मा कहती हैं जीव रूपी साधक को साधना का कठिन मार्ग नहीं त्यागना चाहिए। कठिन साधना के कष्ट से भयभीत नहीं होना है। अरे पथिक! जब हृदय में आग होगी तभी तो आँखों में आँसू शोभा पाएँगे। भाव यह है कि जब तेरे हृदय में उस परमात्मा के लिए तड़प होगी, तेरे आँखों में आँसू छलकेंगे, तभी तो परमात्मा पसीजेंगे। यदि साधना के मार्ग पर चलते हुए तू असफल भी हो जाए,तो निराश होने की कोई बात नहीं क्योंकि साधना के  मार्ग पर मिलने वाली हार भी साधक के लिए जीत के समान है। जिस तरह पतंगा एक क्षण में जलकर राख हो जाता है और दीपक अमर रहता है ठीक उसी प्रकार जीवात्मा भी परमात्मा पर अपने को मिटाकर पुण्य तथा गौरव की अधिकारिणी बन जाती है। जीव रूपी साधक को साधना के पथ पर अपनी तपस्या की कलियाँ बिछानी हैं, फूल सँजोने हैं।

निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार सांसारिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संघर्ष आवश्यक है उसी प्रकार पारमात्मा रूपी प्रियतम को प्राप्त करने के लिए मोह-माया और सांसारिक आकर्षणों से पार पाना होगा। अत: साधना का मार्ग अत्यंत कठिन है। इस पर चलने वाले पथिक को निरंतर जागते रहना चाहिए और आगे बढ़ते रहना चाहिए।

तुलसीदास के पद

तुलसीदास

प्रश्न
तुलसीदास भगवान राम को छोड़कर किसी अन्य देवी-देवता की शरण में क्यों नहीं जाना चाहते ? अपने कथन के समर्थन में तुलसीदास ने कौन-कौन से उदाहरण दिए हैं ? विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।

उत्तर

गोस्वामी तुलसीदास राम के परम भक्त हैं। उनके अनुसार इस सम्पूर्ण जगत में कोई भी ऐसा ईश्वर नहीं है जो अपने भक्तों का उद्‌धार बिना किसी भेदभाव के करता हो। भगवान राम अपने भक्तों को पतित या अधम या नीच पाकर भी उनका उद्‌धार कर देते हैं। तुलसीदास को भगवान राम का पतितपावन रूप अत्यंत हर्षाता है इसलिए वे भगवान के चरणों में ही वास करना चाहते हैं। तुलसीदास राम के चरण छोड़कर अन्यत्र नहीं जाना चाहते। वे मानते हैं कि वही एकमात्र देव हैं जिनका नाम पतितपावन है। वे हठपूर्वक अधमों-नीचों को मुक्ति प्रदान करते हैं। इस प्रसंग में उन्होंने कई पौराणिक मिथकों का उदाहरण दिया है।

खग, मृग, व्याध, पषान, विटप जड़, जवन-कवन सुर तारे।
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपुनपौ हारे॥

जटायु                     
जटायु एक गिद्‌ध पक्षी थे। जब रावण सीता का हरण करके आकाश मार्ग से लंका की ओर जा रहा था तब सीता की दुख-भरी वाणी सुनकर जटायु ने उन्हें पहचान लिया और उन्हें छुड़ाने के लिए रावण से युद्‌ध करते हुए गंभीर रूप से घायल हो गए। सीता को खोजते हुए राम जब वहाँ पहुँचे तब जटायु ने रावण के संबंध में सूचना देकर राम के चरणों में ही प्राण त्याग दिए।

मारीच
मारीच रावण का मामा था। उसने स्वर्ण मृग का रूप धारण करके राम और सीता के साथ छल किया था ताकि राम उसके पीछे चले जाएँ और पीछे से रावण सीता का हरण कर ले। मारीच राम के हाथों मारा गया और उसे सद्‌गति प्राप्त हुई।

व्याध
व्याध से तात्पर्य शबरी से है जो एक प्राचीन जंगली शबर जाति की स्त्री थी। उसे पूर्वाभास हो गया था कि भगवान राम उसी वन के रास्ते से जाएँगे जहाँ वह रहती थी। जब राम वहाँ पहुँचे तो उसने अपने चखे हुए मीठे बेर खिलाकर उनका आतिथ्य किया। भगवान राम ने उसका आतिथ्य स्वीकार किया तथा उसे परमगति प्रदान की। इस प्रकार उन्होंने व्याध का उद्‌धार किया। कुछ विद्‌वानों के अनुसार यहाँ व्याध शब्द का प्रयोग कवि वाल्मीकि के लिए किया गया है जिन्होंने "रामायण" की रचना की थी। यह कहा जाता है कि वाल्मीकि राम का उल्टा नाम जपकर ही तर गए थे।

अहिल्या
भगवान इंद्र ने गौतम ऋषि का रूप धारण कर अहिल्या के साथ दुराचार किया जिससे गौतम ऋषि ने अहिल्या को शाप देकर पत्थर का बना दिया। पौराणिक कथा के अनुसार श्रीराम के चरण रज के स्पर्श से वह पुन: स्त्री बन गई तथा उसकी सद्‌गति हुई।

यमलार्जुन
कुबेर के दो पुत्र थे - नलकूबर और मणिग्रीव। एक बार दोनों भाई नदी में जल-क्रीड़ा कर रहे थे और वहाँ नारद मुनि भी पहुँचे। उनदोनों भाइयों ने नारद मुनि का अपमान कर दिया। नारद मुनि ने उन्हें शाप दे दिया जिसके कारण कुबेर पुत्र यमलार्जुन ( आँवले) नामक जुड़वा वृक्ष बनकर गोकुल में पैदा हुए। भगवान कृष्ण ने ऊखल (ओखली) बंधन के समय उनका उद्‌धार किया।

कालयवन

कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण जरासंध से युद्‌ध कर रहे थे तब जरासंध का एक साथी असूर कालयवन भी भगवान से युद्‌ध करने आ पहुंचा। कालयवन श्रीकृष्ण के सामने पहुँचकर ललकारने लगा। तब श्रीकृष्ण वहाँ से भाग निकले। इस तरह रणभूमि से भागने के कारण ही उनका नाम रणछोड़ पड़ा। जब श्रीकृष्ण भाग रहे थे तब कालयवन भी उनके पीछे-पीछे भागने लगा। इस तरह भगवान रणभूमि से भागे क्योंकि कालयवन के पिछले जन्मों के पुण्य बहुत अधिक थे और कृष्ण किसी को भी तब तक सजा नहीं देते जब कि पुण्य का बल शेष रहता है। कालयवन कृष्ण की पीठ देखते हुए भागने लगा और इसी तरह उसका अधर्म बढऩे लगा क्योंकि भगवान की पीठ पर अधर्म का वास होता है और उसके दर्शन करने से अधर्म बढ़ता है। जब कालयवन के पुण्य का प्रभाव खत्म हो गया कृष्ण एक गुफा में चले गए। जहाँ मुचुकुंद नामक राजा निद्रासन में था। मुचुकुंद को देवराज इंद्र का वरदान था कि जो भी व्यक्ति राजा को निन्द्रा से जगाएगा और राजा की नजर पढ़ते ही वह भस्म हो जाएगा। कालयवन ने मुचुकुंद को कृष्ण समझकर उठा दिया और राजा की नजर पढ़ते ही राक्षस वहीं भस्म हो गया।

निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि भगवान राम अपनी शरण में आए किसी भी प्रकार के भक्त या साधक का क्ल्याण करने का प्रण ले लेते हैं। भगवान राम की शरण में जाने के उपरांत भक्त हर तरह के मोह-माया से मुक्त हो जाता है।

आ: धरती कितना देती है

सुमित्रानंदन पंत


प्रश्न

"हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे" पंक्ति को आधार बनाकर ’आ: धरती कितना देती है’ कविता की समीक्षा कीजिए।

उत्तर

सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति के सुकुमार कवि की संज्ञा प्रदान की गई है। मूलत: प्रकृति से प्रेरणा प्राप्त कवि होने के कारण उनके काव्य में प्राकृतिक सौन्दर्य के बड़े हृदयग्राही चित्र मिलते हैं। पंत ने प्रकृति से संवेदनशीलता को ग्रहण किया था जो सीधे-सीधे उनके काव्य में अभिव्यक्त हुआ है। पंत की भाषा की सबसे बड़ी विशेषता उसकी चित्रात्मकता ( शब्दों द्‌वारा चित्र-रचना) है। इनके काव्य-ग्रंथों में पल्लव, गुंजन, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, उत्तरा लोकायतन ( सोवियत नेहरू शांति पुरस्कार ) और चिदम्बरा ( भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। भारत सरकार ने इन्हें पद्‌मभूषण से भी सम्मानित किया है।
धरती रत्न प्रसविनी है क्योंकि वह रत्नों को जन्म देने वाली है परन्तु मनुष्य स्वार्थवश उसमें अपनी तृष्णा रोपता है और अपनी कामना को सींचता है। प्रस्तुत कविता में कवि अपने बचपन में लालच में आकर धरती में पैसे बो दिए। उस समय उसने सोचा था कि जिस तरह बीज बोने पर पौधा उगता है उसी तरह पैसे बोने से पैसों के प्यारे पौधे उग आएँगे। पैसे उगते नहीं हैं, इस बात से बालक अनजान था। पैसों के अंकुर नहीं फूटे। बालक को लगा कि धरती बंजर है । इसमें पैदा करने की कोई शक्ति नहीं है। कवि कहते हैं कि जब से उन्होंने पैसे बोए थे तब से लगभग आधी शताब्दी बीत गई है पर पैसों की फ़सल नहीं उगी। कई ऋतुएँ आईं और गईं पर बंजर धरती ने  एक भी पैसा नहीं उगला। एक बार फिर से गहरे काले-काले बादल आसमान पर छाए और धरती को गीला कर दिया। मिट्‌टी नरम हो गई थी। कवि ने कौतूहल के वशीभूत होकर मिट्‌टी कुरेद कर घर के आँगन में सेम के बीज दबा दिए। कवि के शब्दों में -

मैंने कौतूहलवश, आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर,
बीज सेम के दबा दिए मिट्‌टी के नीचे,
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिए हों।
कवि को यह घटना याद नहीं रही। ये बीज ममता के तो थे पर इनको तृष्णा से नहीं सींचा गया था। सेम के अंकुर फूट गए थे। एक दिन संध्या समय टहलते हुए कवि की दृष्टि उन पर पड़ी। कवि उन्हें एकटक देखते रहे। उन अंकुरों का कवि ने बहुत सुंदर वर्णन किया है - कवि को लगा कि उन्होंने छोटे-छोटे छाते तान रखे हैं। कवि की कल्पना अत्यंत सटीक है, वर्षा ऋतु में छाते का बिम्ब अत्यंत मनमोहक है पर कवि ने प्रकृति के इन छोटे-छोटे पौधों में जीवन की अभिव्यक्ति की है। कवि के शब्दों में -
छाता कहूँ या विजय पताकाएँ जीवन की
या हथेलियाँ खोले थे वह नन्हीं, प्यारी -
धीरे-धीरे ये अंकुर पत्तों से लद कर झाड़ियाँ बन गए। कुछ समय के पश्चात आँगन में बेल फैल गई। आँगन में लगे बाड़े के सहारे वे सौ झरनों के समान ऊपर की ओर बढ़ने लगे। लताएँ फैल गईं। उन पर छोटे-छोटे तारों जैसे फूल खिले। सेम की फलियाँ लगीं जो बहुत सारी थीं। काफ़ी समय तक सेम की फलियाँ तोड़ते रहे और खाते रहे। कवि कहते हैं कि धरती माता अपने पुत्रों को कितना देती है किन्तु बचपन में लालच के कारण कवि ने इस तथ्य को नहीं समझा था।
कवि कहते हैं कि धरती वसुधा है। वह तो अनेक रत्नों को जन्म देती है। हम जो बोते हैं वही पाते हैं। हमें लोभ, लालच और स्वार्थ का परित्याग कर धरती में उचित बीजारोपण करना चाहिए। धरती हमें हमारी आवश्यकता से भी अधिक देती है। धरती को समाज का प्रतीक मानकर कवि कहते हैं कि इसमें सच्ची समता के दाने बोने चाहिए। मनुष्य की क्षमता तथा मानव ममता के दाने बोने चाहिए अर्थात हमें समतामूलक समाज की स्थापना करनी चाहिए जिसमें समस्त मानव-जाति को बराबरी का दर्ज़ा प्राप्त हो। कोई छोटा-बड़ा न हो, अमीरी-ग़रीबी का अंतर न हो, ऊँच-नीच का भेदभाव न हो। समाज में व्यक्ति की योग्यता के आधार पर उसका उचित सम्मान हो। मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम का भाव होना चाहिए जिससे भाईचारे की भावना प्रबल हो।
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं,
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं,
इसमें मानव ममता के दाने बोने हैं,
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहरी फ़सलें,
मनवता की - जीवन श्रम से हँसें दिशाएँ
हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे।
यह निश्चित है कि हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे। बीज रूपी मणियाँ बोने से सेम रूपी फलियाँ उगेंगी तथा ममता, समता, भाईचारे के बीज (भाव) यदि धरती में बो दिए जाएँ तो मानवता मुस्करा उठेगी। धरती की धूल से सुनहरी फ़सल उत्पन्न होगी और मनुष्य की मेहनत का प्रतिफल मानवता के रूप में प्राप्त होगा जिससे दसों दिशाएँ श्रम की महत्ता से मुस्कराने लगेंगी।


एक फूल की चाह

सियारामशरण गुप्त


प्रश्न

"एक फूल की चाह" शीर्षक कविता में कवि ने किस समस्या को उजागर किया है ? इस कविता के माध्यम से कवि हमें क्या संदेश देना चाहते हैं ?

उत्तर

सियारामशरण गुप्त हिन्दी के प्रसिद्‌ध गाँधीवादी कवि हैं। प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने घर में ही गुजराती, अंग्रेजी और उर्दू भाषा सीखी। सन् 1929 ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और कस्तूरबा गाँधी के सम्पर्क में आये। 1914 ई. में उन्होंने अपनी पहली रचना मौर्य विजय लिखी।
सियारामशरण गुप्त गांधीवाद की परदु:खकातरता, राष्ट्रप्रेम, विश्वप्रेम, विश्व शांति, सत्य और अहिंसा से आजीवन प्रभावित रहे। इनके साहित्य में शोषण, अत्याचार और कुरीतियों के विरुद्‌ध संघर्ष का स्वर विद्‌यमान है।
गुप्त जी की भाषा सहज तथा व्यावहारिक है। 1941 ई. में इन्हें नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी द्‌वारा "सुधाकर पदक" प्रदान किया गया।

प्रमुख रचनाएँ - अनाथ, आर्द्रा, अनुरूपा, पाथेय, मृण्मयी, जय हिन्द आदि।

"एक फूल की चाह" कविता में कवि सियारामशरण गुप्त जी ने भारतीय समाज की एक गंभीर समस्या छुआछूत का अत्यंत मार्मिक ढंग से चित्रण किया है।
भारत अध्यात्मवादी देश है किन्तु हम मनुष्य को मनुष्य का दर्ज़ा देते हुए भी झिझकते हैं। आबादी के एक बड़े हिस्से को अछूत कहकर उसका तिरस्कार और शोषण करते हैं और विश्वास करते हैं कि उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा! उनके मन्दिरों में प्रवेश से देवगण नाराज हो उठेंगे! कुएँ से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआँ अपवित्र हो जाएगा! आदि-आदि।
एक बार भगत सिंह ने कहा था -"कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है। हमारी रसोई में निःसंग फिरता है, लेकिन एक इन्सान का हमसे स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है।... सबको प्यार करनेवाले भगवान की पूजा करने के लिए मन्दिर बना है लेकिन वहाँ अछूत जा घुसे तो वह मन्दिर अपवित्र हो जाता है! भगवान रुष्ट हो जाता है!..."
प्रस्तुत कविता में एक दलित पिता की पीड़ा को उभारा गया है जिसकी बेटी महामारी की चपेट में आ जाती है और उसका पूरा शरीर ज्वर के ताप से तपने लगता है।  ज्वर से ग्रसित होने के कारण बेटी का स्वर क्षीण हो जाता है तथा शरीर अत्यंत कमज़ोर पड़ने लगता है। पिता चिंतित होकर अपनी बेटी को बचाने के लिए नए-नए उपाय ढूँढ़ने लगता है। पिता के सम्मुख चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा दिखाई देता है। उसे ऐसा आभास होता है कि अंधकार उसकी छोटी-सी बिटिया को अपना ग्रास बनाने आ रहा है। उसकी बेटी की आँखें उसी प्रकार जल रही है जैसे आकाश में तारे। एक दिन बेटी पिता से देवी माँ के प्रसाद का एक फूल लाने की याचना करती है। पिता अपनी बीमार बच्ची की इच्छा को पूरा करने के लिए, देवी माँ के मंदिर से एक फूल लाने जाता है, परन्तु हमारी सामाजिक बनावट में दलितों का मंदिर में प्रवेश निषेध है। अत: लाचार पिता को मंदिर में प्रवेश करने और पूजा का फूल लेने की धृष्टता के लिए खूब पीटा जाता है। पिता अपनी मृत प्राय बेटी की अंतिम इच्छा को भी पूरी नहीं कर पाता है।
सिंह पौर तक भी आँगन से
नहीं पहुँचने मैं पाया
सहसा यह सुन पड़ा कि - "कैसे
यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो,  देखो भाग न जाए,
बना धूर्त है यह कैसा,
साफ़-स्वच्छ परिधान किए हैं
भले मनुष्यों के जैसा।
प्रस्तुत कविता के माध्यम से कवि ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि सामाजिक  विकास के लिए जाति के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव नहीं होना चाहिए। भारतीय संविधान के धारा-17 के अंतर्गत भी छुआछूत को ग़ैरकानूनी माना गया है। देश का संविधान प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार देता है। जाति के आधार पर किसी से भेदभाव करना सामाजिक अपराध है जो मनुष्य की गरिमा को चोट पहुँचाती है। कवि के अनुसार जब हम सब देवी माँ की संतान हैं तब क्या उस पिता का दोष देवी की गरिमा से भी बड़ा है ? समाज में जो व्यक्ति ऐसा सोचता है कि दलित के मंदिर में प्रवेश करने से मंदिर या देवी माँ कलुषित हो जाएगी , उस व्यक्ति के विचार में खोट है और हृदय में ओछापन। छुआछूत के नाम पर दलितों को मंदिर में प्रवेश करने से रोकना आधुनिक हो रहे मानव को पतन की ओर उन्मुख करेगा और ऐसी स्थिति में हम एक ऐसे समाज की संरचना करेंगे जहाँ मानवीय-संवेदना और मानवीय-सहयोग का लोप हो जाएगा।


साखी

कबीरदास

प्रश्न

कबीर का परिचय देते हुए कबीर की ईश्वर के प्रति विरह-वेदना को स्पष्ट
कीजिए।

उत्तर
कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। ये सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर का अर्थ अरबी भाषा में महान होता है। कबीरदास भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। कबीरपंथी, एक धार्मिक समुदाय जो कबीर के सिद्‌धांतों और शिक्षाओं को अपने जीवन शैली का आधार मानते हैं।
कबीरदास का लालन-पोषण एक जुलाहा परिवार में हुआ। इन्होंने गुरु रामानंद से दीक्षा ली। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने एक कुशल समाज-सुधारक की तरह तत्कालीन समाज में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों, मूर्ति-पूजा, कर्मकांड तथा बाहरी आडंबरों का जोरदार तरीके से विरोध किया। कबीरदास ने हिन्दू-मुसलामन ऐक्य का खुला समर्थन किया। कबीर के दोहों में गुरु-भक्ति, सत्संग, निर्गुण भक्ति तथा जीवन की व्यावहारिक आदि विषयों पर ज़ोर दिया गया है।
कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्‌ध है। इसके तीन भाग हैं-  साखी, सबद और रमैनी।
कबीर की भाषा में भोजपुरी, अवधी, ब्रज, राजस्थानी, पंजाबी, खड़ी बोली, उर्दू और फ़ारसी के शब्द घुल-मिल  गए हैं। अत: विद्‌वानों ने उनकी भाषा को सधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी कहा है।
कबीर ने निर्गुण ब्रह्‌म की उपासना की है। उनके राम दुनिया के हर कण में विद्‌यमान हैं और उन्हें सच्चे मन और प्रेम से प्राप्त किया जा सकता है। कबीर अपने को राम की बहुरिया मानते हैं जिसका परम कर्त्त्वय है कि वह अपने प्रियतम (ईश्वर) की आराधना करे।
कबीर ने भक्तिपरक दोहों में ईश्वर के प्रति विरह-वेदना को प्रकट किया है। वे कहते हैं कि अपने ईश्वर से बिछड़ने पर जीव (आत्मा) को कहीं भी सुख की प्राप्ति नहीं होती है। न तो उसे दिन में चैन पड़ता है और न ही रात को आराम; न उसे धूप में सुख मिलता है  और न ही छाँव में।
बासुरि सुख, नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं।
कबीर बिछुट्‌या राम सूं, ना सुख धूप न छाँह॥
कबीर अपने प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर! यदि आप मुझे दर्शन देना चाहते हैं, तो मरने के बाद दर्शन देने की जगह जीवन रहते ही दर्शन दीजिए क्योंकि पारस पत्थर की तलाश में पत्थरों से रगड़ते-रगड़ते जब सारा लोहा ही समाप्त हो जाएगा तो उसके बाद पारस पत्थर के मिलने का क्या फायदा ?
मूवां पीछे जिनि मिलै, कहै कबीरा राम।
पाथर घाटा लौह सब, पारस कोणों काम॥
कबीर प्रभु विरह के वियोग में तड़पते हुए कहते हैं कि प्रियतम की बाट देखते-देखते आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा है और इस जिह्‌वा पर भी राम पुकारते-पुकारते छाले पड़ गए हैं लेकिन अभी तक अपने प्रभु से मिलन नहीं हुआ है।
अंखड़ियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्‌या, राम पुकारि-पुकारि॥
कबीर कहते हैं कि ईश्वर के वियोग में मैं पर्वत-पर्वत घूमा और उन्हें याद कर-करके बहुत रोया और अपने नेत्र भी खो दिए, पर वह जड़ी-बूटी कहीं नहीं मिल रही है, जिससे जीवन की प्राप्ति होती है अर्थात्‌ ईश्वर रूपी औषधि नहीं मिली जिससे जीवन में संतोष की प्राप्ति होती है
परवति-परवति मैं फिर्‌या, नैन गँवाए रोइ।
सो बूटी पाँऊ नहीं, जातैं जीवनि होई॥
कबीर की आध्यात्मिक क्षुधा और आकांक्षा विश्वग्रासी हैवह कुछ भी नहीं छोडना चाहती, इसलिये उन्होंने हिन्दू, मुसलमान, सूफी, वैष्णवसब साधनाओं को जोर से पकड रखा है
कबीर की भक्ति में व्याकुल मन ने विरह का जो वर्णन किया है वह इतना मार्मिक तथा स्वाभाविक है कि लगता है कबीर का पौरुषत्व यहाँ समाप्त हो गया है और उनकी आत्मा ने स्त्री रूप में प्रियतम के लिये यह शब्द कहे हैं-''       
मन परतीति न प्रेम रस, ना इस तन में ढंग।
क्या जाणौ उस पीव सूं कैसी रहसि संग।।''

7 टिप्‍पणियां:

  1. Thank you for providing us students with such good answers. This has been a great help!

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  2. थोड़ा अपडेट करते रहिए। यह कार्य छात्र-छात्राओं के लिए बहुत उपयोगी है। लेकिन बहुत सारी चीज़ें अब आ गई हैं जिसे अपडेट किया जाना लाजिमी बनता है। किसी भी प्रकार के सहयोग की जरूरत हो तो मुझे खुशी होगी।

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